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भगवद गीता के संपूर्ण अध्यायों का संक्षेप में वर्णन

भगवद गीता अध्याय 4
नमस्कार साथियों, आपका स्वागत है Life Lessons के माध्यम से अपने जीवन यात्रा को सफल और सुगम बनाने वाले अपने अभियान में। 
भगवद गीता के अपनी सीरीज में हमने भगवद गीता के 3 अध्याय पर चर्चा कर चुके है आज हम अध्याय 4 प्रारम्भ कर रहे है। आज हम चर्चा करेंगे कि हमे अपना कर्म कैसे  करना चाहिए। 

भगवान श्री कृष्ण कहते है कि मैने यह कभी न खत्म होने वाला ज्ञान सर्वप्रथम सूर्य को दिया था , सूर्य ने यह ज्ञान मनुष्य के पिता मनु को दिया, और फिर मनु ने राजा इक्ष्याकु को यह ज्ञान दिया, धीरे धीरे यह अनमोल ज्ञान राज ऋषियों तक पहुंचा। लेकिन कालांतर में यह ज्ञान विलुप्त हो गया है। पार्थ  तुम मेरे भक्त और सखा हो अतः यह अमूल्य ज्ञान मैं तुम्हे दे रहा हूं।

अर्जुन आश्चर्य भाव से भगवान से कहते है हे केशव आप यह कैसी बात कह रहे है? हमारा और आप का जन्म तो अभी कुछ वर्षो पहले ही हुआ है जबकि सूर्य तो सृष्टि के प्रारंभ से है तो    आप सूर्य को यह ज्ञान कैसे दे सकते है। अर्जुन श्री कृष्ण से ऐसी बाते इसीलिए कह रहे है क्योंकि वह मोह के जाल में फंसे हुए है। 

भगवान श्री कृष्ण कहते है कि पार्थ हमारे और तुम्हारे हजारों जन्म हो चुके है मैं और तुम सृष्टि के प्रारंभ से किसी न किसी रूप में यहां पर  है  मुझे तो वह सब याद है लेकिन तुम सब भूल चुके हो। जब जब इस धरती पर अधर्म हावी होने लगता है  तब तब मैं धर्म को बचाने के लिए अवतार लेता हू।  दुष्टओ का नाश कर धर्म की स्थापना करता हूं। कर्म मुझे दूषित नही करते , न ही मुझमें लिप्त होते है। इसीलिए कर्मो का फल मुझे नही लगता है। जो मनुष्य मेरे जन्म के रहस्य को जान लेता है। निरंतर मेरा चिंतन करते हुए शरीर को त्याग देता है। वह सदा के लिए मेरे चरणों में स्थान पा लेता है और कर्म फल से सदैव के लिए मुक्त हो जाता है। 

जो मनुष्य मेरे मार्ग का अनुसरण करता है वो मुझे प्राप्त करता है। मनुष्य जिस भाव से मेरे पास आता है मैं उसे उसी प्रकार से अपनाता है। 
अतः मनुष्य को चाहिए कि वह जाने कर्म क्या है और अकर्म क्या है। जो मनुष्य बिना इच्छा के कर्म करता है वो कर्म करते हुए भी दिव्य स्थति में रहता है । उसे पूर्ण ज्ञानी समझा जाता है। 

पूर्ण ज्ञानी व्यक्ति अपने पूर्ण ज्ञान से अपने कर्म फलों को भस्म कर देता है ज्ञानी जन उसे ही पंडित कहते है। ऐसा व्यक्ति अपनी संपत्ति को त्याग देता है और निष्काम भाव से कर्म करता है। वह ईर्ष्या हर्ष शोक आदि से मुक्त हो कर सफलता तथा असफलता में स्थिर रहता है। ऐसा कर्म योगी कर्म करते हुए भी कर्म बंधन में नही बधता। 

 जो मनुष्य बिना इच्छा से अपने आप प्राप्त हुए फल से अपने को संतुष्ट रखता है जो किसी से ईर्ष्या का भाव नहीं रखता और जो हर्ष और शोक आदि से ऊपर उठ गया हो ऐसा योगी मनुष्य कर्म करता हुए भी उससे नही बंधता।  अर्थात ऐसे मनुष्य पर कर्मो के फल के अनुसार पाप या पुण्य नहीं लगता। 

उदाहरण के लिए मान लीजिए आप ने देखा कि एक शेर एक बच्चे पर हमला कर रहा है आपने बच्चे की जान बचाने के लिए कर्म उस शेर को मार दिया। देखा जाए तो आपने एक जीव की हत्या की है आपको उसका पाप लगाना चाहिए। लेकिन आपने यह कर्म परहित में अपने लिए निष्काम भाव से किया है इसीलिए आप पर इस पाप कर्म का भी पाप  नही लगता बल्कि परहित के कारण आपको पुण्य की प्राप्ति होती है।

अतः हम सभी को निष्काम भाव से अपने   कर्म को करना चाहिए और बिना किसी इच्छा के दुसरो  के प्रति द्वेष, ईर्ष्या के बिना शोक  और हर्ष से दूर रह कर सिर्फ अपना कर्म करना चाहिए। अगर हम इस तरह से कर्म करेंगे तो हम अपने जीवन में अवश्य सफल होंगे।

धन्यवाद
नमस्कार साथियों, आपका स्वागत है Life Lessons के माध्यम से अपने जीवन यात्रा को सफल और सुगम बनाने वाले अपने अभियान में। भगवद गीता की सीरीज में आज हम चर्चा करेंगे की ज्ञान से हमे क्या लाभ मिलते है। और यह ज्ञान कैसे प्राप्त होता है। आइए चर्चा प्रारंभ करते है। 


अर्जुन मोह माया में फंस कर भगवान श्री कृष्ण की तरफ आदर के भाव से देखते है। भगवान श्री कृष्ण कहते है हे पार्थ जो लोग अपने कर्मो का फल इसी धरती पर पाना चाहते है क्योंकि परलोक की अपेक्षा इस लोक में  अपने कर्मो का फल पाना ज्यादा आसान है। वो लोग  विभिन्न प्रकार यज्ञों के द्वारा देवताओं की आराधना करते है- जैसे 

1- अग्नि में आहुति के द्वारा
2- विभिन्न प्रकार के तपस्या के द्वारा
3- कठोर व्रत के द्वारा
4- अपनी संपत्ति के स्वामित्व को त्याग कर
5- अस्तांग योग के द्वारा 
6- वेदों के अध्ययन के द्वारा
7- समाधि के द्वारा 
8- कम भोजन करके प्राण को प्राण में आहुति देते है 

इन यज्ञों के द्वारा व्यक्ति अपने कर्म फलों से मुक्त होकर दिव्य धाम की ओर प्रस्थान करते है। लेकिन जो मनुष्य यज्ञ नही करता उसे इस लोक में तो सुख नही मिलता तो परलोक में कैसे सुख मिल सकता है।  इसीलिए सभी मनुष्य को अपनी मुक्ति के लिए यज्ञ करना चाहिए।

लेकिन इन सब यज्ञो से ज्ञान यज्ञ श्रेष्ठ है।  इस ज्ञान को सिद्ध गुरु के पास जाकर सीखना चाहिए।  यह ज्ञान सिद्ध गुरु को दंडवत प्रणाम कर उन्हे सेवा द्वारा प्रसन्न कर, उनसे आदर पूर्वक प्रश्न पूछ प्राप्त किए जा  सकते  है। सिद्ध गुरु के ज्ञान से व्यक्ति जान जायेगा कि सभी जीव मनुष्य मेरे ही अंश है। 

जिस प्रकार अग्नि लकड़ी को जला कर भस्म कर देती है उसी प्रकार दिव्य ज्ञान कर्म फलों को जला कर भस्म कर देता है। इस संसार में दिव्य ज्ञान के समान कुछ भी नही है। दिव्य ज्ञान से ही व्यक्ति आध्यात्मिक शांति को प्राप्त कर लेता है। दिव्य ज्ञान ज्ञानी लोगो से उन्हें दंडवत प्रणाम करके, उनकी सेवा करके और कपट रहित प्रश्न पूछ कर  प्राप्त किया जा सकता है जब तुम्हे दिव्य ज्ञान प्राप्त हों जाएगा तो तुम मोह के जाल से मुक्त हो जाओगे।

ऐसे में अगर तुम अन्य लोगो से अधिक पाप करते हो तो भी ज्ञान युक्त नौका बैठ कर भाव सागर पार कर सकते है। इस संसार में ज्ञान से पवित्र कुछ भी नही है। 

जित्तेंद्रीय और श्रद्धा वान मनुष्य ज्ञान को प्राप्त कर लेते है जबकि अज्ञानी तथा श्रद्धा विहीन व्यक्ति शास्त्रों में संदेह करते है ऐसे मनुष्य परमार्थ से भ्रष्ट हो जाते है। ऐसे लोगो के लिए न तो इस लोक में न परलोक में कोई सुख है। 

साथियों अब ज्ञान के महत्व के बारे में मुझे कुछ भी बताने की जरूरत नही है। आप सब ज्ञानी है तभी मेरी वीडियो देख रहे है। प्राचीन काल में बाहुबल सत्ता और धन का पर्याय माना जाता था। परंतु आधुनिक कलयुग तो पूरी तरह से ज्ञान और बुद्धि पर टिका हुआ है। और ज्ञान के कारण ही नित्य नई नई चीजों का अविष्कार और खोज कर रहा है। साथियों  यह ज्ञान आसानी से नहीं मिलता अपने से ज्यादा ज्ञानी व्यक्ति को खोज कर उसकी सेवा या फीस देकर पाया जा सकता है। इसके लिए हमे यूट्यूब का धन्यवाद करना चाहिए क्योंकि यूटुबर आपके लिए नित्य नवीन ज्ञान ढूंढ कर लाते है जो आपको फ्री में उपलब्ध है क्योंकि उन्हें यूट्यूब भुगतान करता है। 


धन्यवाद

भगवद गीता अध्याय 5

नमस्कार साथियों, आपका स्वागत है life Lessons के मध्यम से अपने जीवन को सफल और सुगम बनाने वाले अपने अभियान में। 

साथियों भगवद गीता की अबतक की सीरीज में हमने देखा कि अर्जुन अपनो से युद्ध नहीं करना चाह रहे है जबकि भगवान उन्हे कर्म के माध्यम से युद्ध करने के लिए प्रेरित कर है। अर्जुन अपनी उलझन को प्रश्न के माध्यम से भगवान के समक्ष रखते और भगवान श्री कृष्ण मुस्कुराते हुए उपदेश दे रहे है। भगवान के उपदेश सिर्फ अर्जुन के लिए नही है बल्कि संपूर्ण जन मानस के लिए है। भगवान अपने उपदेश से सम्पूर्ण जन मानस को कर्म करने के लिए प्रेरित कर रहे है। इसीलिए इस सीरीज को ध्यान से देखिए। आपको जीवन का लक्ष्य मिल जायेगा। चलिए आज की चर्चा प्रारंभ करते है।


अर्जुन बड़े उलझन से भगवान श्री कृष्ण से कहते है कि केशव पहले आप सब कुछ त्याग कर सन्यास की बात कहते और बाद में आप निस्वार्थ कर्म करने की प्रसंशा करते है । प्रभु अब मुझे सही सही बताइए कि इन दोनो मार्गो में से कौन सा मार्ग श्रेष्ठ है।

इस प्रश्न के उत्तर में भगवान कहते है। भले ही सन्यास और कर्म दोनो अलग अलग मार्ग है लेकिन दोनो की मंजिल एक ही है और वह है परमात्मा को पाना। भक्ति में बिना योग के परमात्मा को नही पाया जा सकता और कर्म करते समय बिना भक्ति के परमात्मा को नही पाया जा सकता। अतः किसी एक मार्ग से भली प्रकार अनुसरण करके दोनो मार्गो का फल पाया जा सकता है। फिर भक्ति युक्त कर्म श्रेष्ठ मार्ग है। क्योंकि इस मार्ग के अनुसरण से व्यक्ति सामाजिक और आध्यात्मिक दोनो लक्ष्यों को पा सकते है।

जो व्यक्ति कर्म करते समय यह सोचता है कि कर्म उसने नही परमात्मा ने किया है जो हर जीव जंतु को उस परमात्मा का हिस्सा मानता है और किसी में भेद नहीं करता। चाहे वह चांडाल हो या ब्राह्मण, चाहे वह चींटी हो या हाथी। वह मनुष्य मरने के बाद परमात्मा में मिल जाता है।

स्थिर बुद्धि व्यक्ति कोई भी कार्य खुद को पवित्र करने और दुसरो का भला करने के लिए करते है। ऐसे व्यक्ति अपनी इंद्रियों को वश में कर के अपने कर्म फलों को परमात्मा को दे देते है। अतः ऐसे व्यक्ति कर्मों के फल से उसी तरह अप्रभावित रहते है जैसे कमल जल से। ऐसे व्यक्ति कर्म फलों को परमात्मा को देकर जीवन में शांति प्राप्त करते है।

अगर शरीर नगर है तो आत्मा इसकी स्वामी। आत्मा किसी से कर्म करने के लिए नही कहती। हे अर्जुन ये इंद्रियां इच्छा आशा डर और क्रोध तेरे दुश्मन है। इसका त्याग कर अपने जीवन को सफल बना। 

हे पार्थ तुम इस शरीर को जितना भी सुख दे दो इस शरीर की इच्छा कभी भी पूरी नहीं होगी। इसीलिए अर्जुन तुम्हे बिना किसी इच्छा से कर्म करना चाहिए। अगर तुम कर्म करते समय इच्छा करोगे और कर्म करने का बाद अगर तुम्हे इच्छित फल नहीं मिला तो तुमको क्रोध आएगा। यह क्रोध तुमसे बुरे कर्म करवाएगा।
परमात्मा किसी भी मनुष्य को बुरा काम करने के लिए प्रेरित नही करते बल्कि व्यक्ति स्वयं ही काम, क्रोध और लोभ में आकर बुरे काम करते है और जिससे बुरे फलों का निर्माण होता है। परमात्मा सिर्फ उनका किया हुआ फल उन्हे वापस कर देते है। अर्थात अगर व्यक्ति अच्छे कर्म करेगा तो उसे अच्छे फल प्राप्त होंगे और बुरे कर्म करेगा तो बुरे फल प्राप्त होंगे।

इस संसार में असली योगी वह है जिसने अपने शरीर का नाश होने से पहले अपने क्रोध का नाश कर दिया है। जो सम्पूर्ण प्राणियों का हित करता है जिसका मन किसी कर्म में नहीं बंधता वह अपने मन को एक जगह लगा कर परमात्मा को याद करता है। वही व्यक्ति सुखी भी है और भगवान सहित सभी को प्यारा भी।

साथियों हमारा शरीर आराम में रहना चाहता है जब आप आत्मा की आवाज न सुन कर अपने शरीर की बात सुनते है और आराम करते है तो इसका आशय है कि आपका शरीर आत्मा पर भारी पर गया है। बिना आत्मा के आपका शरीर मिट्टी के समान है। इसीलिए आपको समझना होगा कि आप अपनी आत्मा से अपने शरीर को जैसे चलाना चाहे चला सकते है। साथियों जो रास्ता भगवद गीता में बताया गया है वह आपको परमात्मा से मिला ही देता है। अगर आप भगवद गीता के उपदेशों को अपने जीवन में उतारेंगे तो आप अपने जीवन के सभी लक्ष्यों को पा ही लेंगे।

धन्यवाद


भगवद गीता अध्याय 6

नमस्कार साथियों, आपका स्वागत है life Lessons के मध्यम से अपने जीवन को सफल और सुगम बनाने वाले अपने अभियान में। आज हम चर्चा करेंगे भगवद गीता के।अध्याय 6 की। 

भगवद गीता की के अध्याय 6 में भगवान श्री कृष्ण बताते है कि योगी वह नहीं है जो सब कुछ त्याग कर सन्यास धारण कर ले। बल्कि योगी वह है जो निष्काम भाव से अपना कर्म करे और संसार के समस्त सुखों को त्याग दे। इसके अलावा भगवान इस अध्याय में बताते है कि चंचल मन को कैसे नियंत्रित किया जाता है। तो चलिए आज की चर्चा प्रारंभ करते है।

 भगवान श्री कृष्ण अर्जुन से कहते है हे पार्थ जो मनुष्य कर्म के फल की इच्छा न रखते हुए अपने नियत कर्म और कर्तव्य को करता है वही योगी और संन्यासी है । बिना स्वार्थ और ईच्छा त्यागे कोई भी मनुष्य योगी नही बन सकता। योगी को हमेशा अति से बचना चाहिए। उसे न तो अधिक खाना चाहिए न ही कम खाना चाहिए। न ही उसे अति प्रसन्न होना चाहिए न ही अधिक दुखी। 

एक बार योगी बन जाने के बाद योग को कायम रख कर अपना उद्धार करने के लिए शांति और स्थिरिता को साधन बताया गया है। शांति और स्थिरिता को बनाने के लिए मन पर नियंत्रण होना अत्यंत आवश्यक है। क्योंकि मन ही मनुष्य का शत्रु है और मन ही मनुष्य का मित्र है। जिस मनुष्य ने मन पर नियंत्रण कर लिया है मन उस मनुष्य का मित्र है और जो मनुष्य मन में नियंत्रण नहीं कर पाता मन उसका सबसे बड़ा शत्रु बन जाता है। जो मनुष्य मन पर नियंत्रण कर लेता है वह हमेशा शांति में रहता है वह सर्दी गर्मी में,मान अपमान में, सुख दुख में सदैव शांत रहता है। 


मन को नियंत्रित करने के लिए योगी को चाहिए कि वह एकांत स्थान पर आसन बिछा कर उस पर सीधे बैठ जाए और मन इंद्रियों तथा कर्मो को वश में करके नाक।के अगले सिरे पर दृष्टि लगाए। भय रहित होते हुए हृदय में मेरा चिंतन करे। इस तरह से आत्मा को शुद्ध करके ही मनुष्य मुझे पा सकता है।

जिसकी आत्मा अर्जित और अनुभूत दोनो प्रकार के ज्ञान से युक्त है जो स्थिर है जिसने अपनी इंद्रियों को जीत लिया है जिसके लिए मिट्टी पत्थर, हीरे जवाहरात ,सोना चांदी एक समान है। ऐसे समदर्शी मनुष्य को योग युक्त कहा जाता है। अर्थात ऐसे मनुष्य सीधे भगवान से जुड़ जाते है। जो मनुष्य शत्रु मित्र संत और पापी को एक समान भाव से देखता है। ऐसे मनुष्य को श्रेष्ठ माना जाता है

जिस व्यक्ति के आहार और विहार दोनो नियमित है जिस व्यक्ति की सभी इच्छाएं और चेस्थाए दोनो नियमित है। सोना और जागना नियमित है उस व्यक्ति में ऐसा अनुशासन आ जाता है जो उसके सभी दुखो को खत्म कर देता है। जो व्यक्ति चित्त की लालसओ को मिटाकर , अनुशासित होकर केवल आत्मा में ही टिक जाता है तब वह योग में लीन कहलाता है।जिसके मन से सभी विकार निकल गए है। जो निस्पाप है जो परमात्मा के साथ एक हो गया है। सबसे बड़ा सुख इस योगी को मिलता हैऔर मुझ में ही निवास करता है। 

साथियों मन ही हमारा सबसे बड़ा मित्र है और मन ही हमारा सबसे बड़ा शत्रु ।जब हम मन को अपने वश में करके।नियंत्रित कर लेते है मन हमारा मित्र बन जाता है परंतु अगर हम मन को।नियंत्रित नहीं कर।पाते है तो यही मन हमारा शत्रु बन जाता है। अतः हमे मेडिटेशन द्वारा मन को नियंत्रित कर मन को अपना मित्र बनाना चाहिए। ताकि हम निस्काम भाव से अपना कर्म कर के अपने लक्ष्य को पा सके।

धन्यवाद


भगवान के इन बातो को सुनकर अर्जुन भगवान श्री कृष्ण से कहते है भगवान जो आपने मन को शांत रखने वाला को योग बताया है मन की चंचलता के कारण ही यह योग अत्यंत कठिन है। क्योंकि यह मन बहुत ही चंचल तेज बलवान और हठी है। मुझे तो लगता है मन को वश में करना हवा को वश में करने से भी ज्यादा कठिन है। 

इस प्रश्न के उत्तर में भगवान अर्जुन से कहते है। है पार्थ तुम सही कह रहे हो यह मन बहुत ही चंचल है और इस वस में करना भी बहुत कठिन है फिर भी तू जान ले। कि लगातार अभ्यास और वैराग्य द्वारा इस मन को वश में किया जा सकता है। 


 जैसे बिना हवा वाले स्थान में रखे दीपक की लो स्थिर रहती है हिलती नही है वैसे भी वह योगी भी स्थिर रहता है। जिसने अपने अनुशासन द्वारा चित्त , आत्मा और मन को वश में कर लिया है। तब वह परमात्मा रूप में अपनी आत्मा को देखता है, और उसी आत्मा में वह आनंद लेता है। वह बुद्धि द्वारा मन और इंद्रियों से परे उस परम आनंद को पा लेता है। जहां पहुंच कर वह कभी विचलित नहीं होता। इस परम आनंद को पा कर मनुष्य समझता है कि इससे बेहतर उसे कुछ भी नही मिल सकता है। इस स्थिति में।रहने पर वह बड़े से बड़े दुख से भी विचलित नहीं होता है। इसी स्थिति का नाम है योग। वास्तव में जो बंधन हमे दुख से बांधे रखते है उस बंधनों को काटे रखने का नाम ही योग है। 

अर्जुन के मन में एक और शंका उभरती है जो मनुष्य श्रद्धा वान होते हुए भी चंचल मन का होने के कारण अपने आप को वश में नहीं कर पाता है और योग के मार्ग पर चलने के बाद भी उस मार्ग से भटक जाता है और सिद्धि तक नही पहुंच पाता उसकी क्या दशा होती है।  

इस पर भगवान श्री कृष्ण समझाते हुए कहते है सुन पार्थ जो मनुष्य अच्छे कर्म करते हुए अच्छाई के मार्ग पर चलता है उस व्यक्ति की।कभी दुर्दशा नहीं होती। उसका न तो इस लोक में न ही परलोक में उसका नाश होता है। जो व्यक्ति योग के मार्ग से भटक जाता है। वह पुण्य आत्माओं के लोक में जाता है और वहां कई वर्षो तक रहने के बाद वह सदाचारी और बुद्धिमान लोगो के यहां जन्म लेता है। ऐसा जन्म जो संसार में दुर्लभ है। और फिर पूर्व जन्मों में किए गए सदाचारो से प्राप्त दैवीय संस्कारी को पुनः प्राप्त कर लेता है। और यहां से इसे आरंभ मान फिर से पूर्णता पाने के प्रयास में लग जाता है। इस तरह से अंततः वह परम सिद्धि और परम गति पा ही लेता है। योगी तपासियो और ज्ञानियों से भी बड़ा है। इसलिए पार्थ तू योगी ही बन और इन सभी योगियों में उसे ही श्रेष्ठ माना जाता है जो सम्पूर्ण अंतरात्मा को मुझमें समर्पित कर पूरी श्रद्धा और निष्ठा से मेरी उपासना करता है। 

 साथियों जो लोग सदाचार में लगे रहते है अगर इनसे छोटी मोटी गलती भी हो जाए तो उसे समाज माफ कर।देता है। इसीलिए हमेशा सदाचार करना चाहिए। 



भगवद गीता अध्याय 7

नमस्कार साथियों, आपका स्वागत है life Lessons के मध्यम से अपने जीवन को सफल और सुगम बनाने वाले अपने अभियान में। आज हम चर्चा करेंगे भगवद गीता के।अध्याय 7 की। 

भगवद गीता की के अध्याय 7 में भगवान श्री कृष्ण भगवान और भक्त के प्रकार बताते है साथ ही यह बताया कि  ज्ञान का अंतिम उद्देश्य क्या है। आइए आज की चर्चा प्रारंभ करते है।

भगवान श्री कृष्ण अर्जुन से कहते है हे पार्थ  मैं तुम्हे बताता हु कि मैं कौन हूं इसके बाद तुम्हे जानने को कुछ भी नही बचेगा। हजारों मनुष्यो में से कोई एक सिद्धि के लिए प्रयास करता है और हजारों सिद्धि प्राप्त करने वालो में से कोई बिरला ही मुझे जान पाता है। 

हे पार्थ मेरी 2 प्रकृति है पहली है निम्न या प्राकृतिक प्रकृति । जो आठ है पृथ्वी जल आकाश वायु अग्नि मन बुद्धि और अहंकार। दूसरी है सूक्ष्म अथवा ईश्वर की प्रकृति जो है जीव रूपी आत्मा। जिससे पूरा संसार धारण किया जाता है। सभी प्राणियों का उदगम मेरी दोनो प्रक्रतियो के जुड़ने से होता है। मैं भी सारे संसार का मूल हू और मैं ही सारे संसार का विनाश हू। मैं ही वह सूत्र हू जिसमे सारा संसार पिरोया रहता है। संसार में मुझसे बड़ा कोई नही है। मैं किसी में नहीं हू सारा संसार मुझ में है। 

हे पार्थ मुझ में आस्था रखने वाले भक्त 4 प्रकार के होते है।
पहले भक्त जो संकट के समय मुझे याद करते है। वह मुझे तभी याद करते है जा  उन पर कोई विपदा आन पड़ती है।
दूसरे भक्त जो जिज्ञासु होते है, मेरे विषय जानना चाहते है।
तीसरे भक्त जो घर संपत्ति, संतान या अन्य चीजों की  लालसा रखते है।
और चौथे भक्त जो ज्ञानी होते है, और वे सत्य को जान चुके होते है कि संसार में मुझसे बड़ा कोई भी नही है। 

वैसे तो सभी चारो प्रकार के भक्त मुझे प्रिय है लेकिन उसमे से ज्ञानी भक्त मुझे अति प्रिय है। क्योंकि ज्ञानी सत्य को जान जाता है और भक्ति भी उसकी  सच्ची होती है।  मेरी उपासना करने वाले मेरे भक्त अंत में मेरे पास ही पहुंचते है। 

अपनी योग माया के कारण मैं छुपा हुआ रहता हु किसी के सामने प्रकट नही होता हू। इसी लिए यह संसार मुझे जान नही पाता है। सिर्फ ज्ञानी ही मुझे जान सकता है। जबकि मैं सबकुछ जनता हू। जो हो चुका है, जो हो रहा है और जो होने वाला है अर्थात सब कुछ। 

संसार में इच्छा और द्वेष इन दोनो से ही सुख दुख उत्पन्न होते है। प्राणी ऐसे ही मोह माया में फंस कर मोह को प्राप्त करते है।  लेकिन ऐसे मनुष्य जिन्हीने पूर्व जन्मों और इस जन्म में पुण्य कर्म किए है वह मोह के जाल में नही फंसते है।  जो बुद्धिमान व्यक्ति अपने कष्टों से मुक्ति पाना चाहते है वे मेरी शरण में आते है।

साथियों इस तरह से आपने जाना kk जीवन का प्रमुख उद्देश्य ज्ञान की प्राप्ति है और ज्ञान की प्राप्ति का मुख्य उद्देश्य भगवान की प्राप्ति है। अतः हम सभी के अपना जीवन ज्ञान प्राप्ति में लगाना चाहिए और जीवन यात्रा के मार्ग में आने वाले कर्म को निष्काम भाव हुए अपने लक्ष्य को पाना चाहिए। धन्यवाद



Bhagwad Geeta adhyay 8

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आज हम चर्चा करेंगे भगवद गीता के अध्याय 8 की। भगवद गीता के अध्याय 8 में भगवान श्री कृष्ण बताते है कि हम अपने मंजिल या गोल को कैसे पा सकते है, गोल को प्राप्त करने के लिए हमे मन में किसका भाव रखना चाहिए। 

तो आइए आज की चर्चा प्रारंभ करते है।



अर्जुन भगवान श्री कृष्ण से पूछते है हे केशव ब्रह्म क्या है, आध्यात्म क्या है, कर्म क्या है, अधिभूत, अधिदैव , अधियज्ञ किसे कहते है। और यह भी बताइए कि जिस व्यक्ति ने अपने मन को वश में कर लिया है वह अंतिम समय में आपको कैसे जान पाएगा।

भगवान मुस्कुराते हुए अर्जुन को समझाते है कि पार्थ ब्रह्म तो परम सत्य है। ब्रह्म ही सारी सृष्टि का मूल है। ब्रह्म अनश्वर है, प्रत्येक जीव धारी की स्थित ब्रह्म को आत्मा कहते है और आत्मा के स्वभाव को अध्यात्म कहते है। 

कर्म उस सृजन शील शक्ति का नाम है जिससे समस्त वस्तुओं को अस्तित्व में लाया जाता है और उन्हें परिवर्तित किया जाता है। 

अधिभूत नश्वर भौतिक जगत है जिसमें समस्त सहेजी गई वस्तुओं का नाश या अंत होता है। अधिभुत का आधार परिवर्तन शील प्रकृति है। 

अधिदेव जीव में रहने वाली देवीय आत्मा है और अधियज्ञ शरीर है। जिससे सभी यज्ञ और कर्म किए जाते है जिसका स्वामी मैं स्वयं हू अर्थात सभी यज्ञ का स्वामी मैं हू। 

भगवान श्री कृष्ण अर्जुन से कहते है हे पार्थ मरते समय मनुष्य का ध्यान जहां रहता है मरने के बाद मनुष्य की आत्मा वही पहुंचती है। जैसे मरते समय अगर मनुष्य मेरा ध्यान करता है तो निश्चित ही वह मनुष्य मुझे पा ही लेता है। 

इसीलिए पार्थ तू सदा ही मेरा ही ध्यान करके युद्ध कर। जब तेरा मन और तेरी बुद्धि मेरी ओर ही एकाग्र रहेंगे तो निश्चित रूप से तू मुझे ही प्राप्त करेगा। 

इसी तरह मनुष्य अपनी इंद्रियों को वश में करके परमपुरुष में ध्यान लगता है और अपने मन को भटकते नही देता वह अवश्य ही उस परम पुरुष को पा ही लेता है।

भगवान आगे कहते है हे पार्थ, मुझ तक पहुंचने के बाद उस मनुष्य को परम गति मिल जाती है। इसके बाद उसे इस अस्थाई और दुख भरे संसार में फिर से जन्म नही लेना पड़ता है। 

ब्रह्मा का एक दिन एक हजार युग जितना लंबा होता है और उसी तरह ब्रह्मा की रात भी एक हजार युग जितनी लंबी होती है। ब्रह्म का दिन शुरू होते ही श्रृष्टि जन्म लेती है और जीवन शुरू होता है। लेकिन ब्रह्मा का रात होते ही श्रृष्टि मुझ में विलीन हो जाती है और जीवन समाप्त हो जाता है। यह सब निरंतर होता रहता है। अर्थात सभी लोक नश्वर है। 

लेकिन इस सब से परे एक और स्थान भी है जो अमर है। जो कभी नष्ट नही होता है। वह जगह है मेरा धाम जहा मैं निवास करता हूं। जो मनुष्य इस परम धाम को पा लेता है। वह कभी संसार में वापस नहीं लौटता। 

हे पार्थ अब मैं तुझे वह समय बताता हू जिसमे इस संसार से जाने वाले लोग कभी वापस नहीं लौटते और वह समय भी बताता हु जिसमे मृत्यु के बाद लोग फिर वापस लौट आते है। मृत्यु के बाद संसार से जाने वाले यही दो मार्ग है -

प्रकाशमय मार्ग - अग्नि, प्रकाश, दिन, शुक्ल पक्ष और उत्तरायण के समय में जाने वाले ज्ञानी ब्रह्म तत्व में पहुंच जाते है और इस संसार में वापस नहीं लौटते है। 

अंधकारमय मार्ग - धुआं, अंधकार रात्रि, कृष्ण पक्ष और दक्षिणायण के समय में जिसमे संसार से जाने वाले चंद्रमा की ज्योति को प्राप्त करके वापस लौट कर जन्म लेते है। 

जो योगी इन सब ज्ञान को प्राप्त कर लेता है वह योगी तप, वेदों के अध्यन, यज्ञ और दान से मिलने वाले पुण्य से भी परे पहुंच जाता है। और वह सनातन परम पद को प्राप्त कर लेता है।  

साथियों हमे हमेशा अपने गोल पर ध्यान लगा कर एकाग्र मन से उसी दिशा में प्रयास करना चाहिए। साथ ही हमे अपना फल भगवान पर छोड़ देना चाहिए। अगर हम लगातार प्रयास करेंगे तो वह गोल हमे प्राप्त हो ही जायेगा। 

साथियों वीडियो या चैनल के लिए कोई सलाह या सुझाव हो तो कमेंट कर उसे अवश्य बताएं आपका एक एक कमेन्ट हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण है। साथियों वीडियो बनाने में बहुत परिश्रम और समय लगता है इसीलिए अगर वीडियो अच्छी लगी हो तो Like और Share कर हमे प्रोत्साहित करे। इस चैनल पर ऐसी ही ज्ञान वर्धक वीडियो मिलती रहेंगी इसीलिए चैनल को सब्सक्राइब करे। धन्यवाद




भगवद गीता अध्याय 9

नमस्कार साथियों, आपका स्वागत है life Lessons के माध्यम से अपने जीवन को सफल और सुगम बनाने वाले अपने अभियान में। इस चैनल पर हम अपने जीवन को सफल और सुगम बनाने वाले विषय पर चर्चा करते है और  यह सीखते है  कि कैसे चर्चा करने वाले विषय को अपने जीवन में सामिल कर अपने जीवन को सफल बना सकते है। 

साथियों आज हम चर्चा करेंगे कि भगवद गीता के अध्याय 9 से हमे क्या सीख मिलती है। अब तक हमने भगवत गीता के 8 अध्याय पर चर्चा कर ली है अगर आपने वह चर्चा नही देखी है तो डिस्क्रिप्शन बॉक्स में भगवद गीता प्लेलिस्ट है वहा से सभी अधयायो को देख सकते है। भगवद गीता के अध्याय 9 में  सबसे बड़े रहस्य से पर्दा हटाते है और बताते है कि  भगवान कौन है, वो कहा रहते है और उनकी पूजा किस प्रकार से करनी चाहिए। विषय महत्वपूर्ण है ध्यान से देखिएगा ।


केशव कहते है हे पार्थ मैं तुझे वह गहरा रहस्य बताता हूं जिसे जानकर तू इस कष्ट भरे संसार से मुक्त हो जायेगा। जो लोग इस ज्ञान को नही जान पाते वह जन्म मरण के इस जाल में फंसे रहते है। 

हे पार्थ मैं ना तो दिखाई देता हु और न ही शब्दों से मेरा वर्णन संभव है। सभी प्राणी मुझ में निवास करते है जबकि मैं उनमें  नही निवास करता हूं। कल्प के अंत में सभी अस्तित्व में आई सभी वस्तुएं मुझ में विलीन हो जाती है और कल्प के आरंभ में मैं उन्हे फिर उत्पन्न कर देता हु। मैं जीवो को बार बार उत्पन्न करता हु। मेरी देखरेख में प्रकृति सब वस्तुओं को जन्म देती है। 

जब मैं अवतार लेता हू तब अज्ञानी लोग मुझे पहचान नहीं पाते और मुझ पर उपहास करते है। वो नही जानते कि मैं हर जगह हूं।
मैं ही कर्मकांड हूं, मैं ही यज्ञ हूं, मैं ही अग्नि हूं और मैं आहुति भी हूं। मैं ही संसार का पिता और माता हू। मैं ही अमरता हू और मैं ही मृत्यु भी हूं।

जो लोग वेदों से ज्ञान प्राप्त कर चुके है वो लोग यज्ञ द्वारा मेरी उपासना करते है। वो लोग मृत्यु के बाद स्वर्ग को जाते है और वहां देवताओं को मिलने वाले सुखों का आनंद लेते है। धीरे धीरे जब उनका पुण्य समाप्त हो जाता है उसके बाद वह पुनः जन्म लेते है।

 अर्थात आप जिसे भी भगवान मानते है उसे सर्व शक्तिमान मानिए। उसके हर स्वरूप की उसी प्रकार उपासना कीजिए जैसे उसके मुख्य स्वरूप की करते है। ज्ञानी लोग भगवान की हर रूप को पहचान कर सच्चे मन से उनकी उपासना करते है।

भगवान आगे कहते है जो भक्त अन्य  देवताओं की उपासना करते है वो भी त्रुटिपूर्वक मेरी ही उपासना करते है। लेकिन उनकी उपासना सही तरीके से नहीं होती। 

देवताओं के उपासक देवताओं को प्राप्त करते है। पितरों के उपासक पितरों को प्राप्त करते है। भूत प्रेतों के उपासक भूत प्रेतो पास जाते है। 

लेकिन जो भक्त गण निस्काम भाव से मेरा ही चिंतन करते रहते है उनके जीवन की सभी इच्छाएं मैं स्वम पूरी करता हूं ।

हे पार्थ इसीलिए जो भी तु काम करता है उसे मुझ को समर्पित मान किया करो। उस काम को में खुशी से स्वीकार करता हु। ऐसा करने से तू उस काम के अच्छे या बुरे परिणामों से मुक्त हो जायेगा। और मुझे ही प्राप्त हो जायेगा। 

अर्थात कई लोग अन्य देवतावो की उपासना करते है तो वास्तव में वह प्रमुख देवता की ही उपासना करते है। क्योंकि वास्तविक रूप से करने वाले तो स्वम भगवान है। आपने ऑफिस में देखा होगा कि कई लोग बॉस की जगह अन्य अधिकारियों की जी हजूरी में लगे रहते है और अधिकारी लोग बॉस की। इस तरह से सभी लोग बॉस का ही आदेश मानते है क्योंकि करने वाला तो बॉस ही है। 


भगवान आगे कहते है यदि कोई बड़ा दुराचारी व्यक्ति पूरी भक्ति से मेरी उपासना करता है। तो वह भी मेरी शरण में आता है।  जो लोग मेरी शरण में आते है चाहे वह निम्न कुल में जन्म क्यों न लिए हो,चाहे वह बड़े से बड़े पापी क्यों न हो वे भी मेरी शरण में आकर परम गति को पा ही लेते है। 

फिर ब्राह्मणों, भक्त गणों और तुम जैसे राज ऋषि का कहना ही क्या। इसलिए पार्थ तू अपने मन को मुझ में स्थिर कर मेरा भक्त बन। इस तरह से तू मुझ तक अवश्य पहुंच जाएगा। 

अर्थात अगर कोई सच्चे मन से भगवान की प्रार्थना करता है तो भगवान उसकी मनोकामना पूर्ण करते है। यहां तक कि अगर किसी भक्त ने पहले कभी कोई पाप किया हो लेकिन अब वह अच्छे कार्यों में लग कर भगवान की।पूजा करता है तो भागवान ऐसे भक्त की भी मनो
कामना पूर्ण करते है।

अर्थात हमे सच्चे मन से भगवान की पूजा करनी चाहिए। भगवान सभी की मनोकामना पूर्ण करते है। 

साथियों आपने देखा कि हमारे चैनल की वीडियो आपकी सफलता में कितनी उपयोगी साबित हो सकती है इसीलिए अगर आप अपने जीवन में सफल होना चाहते है तो चैनल को सब्सक्राइब कर नोटिफिकेशन वाली घंटी को on कर दीजिए जिससे आपको हमारी वीडियो बिना किसी व्यवधान के मिलती रहे। और जिन साथियों ने चैनल को पहले से ही सब्सक्राइब कर रखा है उन्हे धन्यवाद, वो वीडियो को शेयर कर अन्य साथियों तक पहुंचाए क्योंकि ऐसा ज्ञान उन्हें यूट्यूब पर कही और नही मिलेगा।
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साथियों इस संदर्भ में आज हम चर्चा करेंगे कि भगवद गीता के अध्याय 10 से हमे क्या सीख मिलती है। अब तक हमने भगवत गीता के 9 अध्याय पर चर्चा कर ली है अगर आपने वह वीडियो नही देखी है तो डिस्क्रिप्शन बॉक्स में भगवद गीता का प्लेलिस्ट है वहा से सभी अध्यायों को देख सकते है। 

भगवद गीता के अध्याय 10 में केशव अपने बारे में बताते है कि भगवान कौन है, उसकी क्या शक्तियां है और उनकी कौन कौन सी विभूतियां है। 

केशव कहते है हे पार्थ तू मेरा प्रिय है, मेरी बातो को बड़ी ध्यान से सुन रहा है इसीलिए मैं तुम्हे यह सब बता रहा हूं। मेरे उद्गम और आदि के विषय में कोई नहीं जानता है मैं अजन्मा अनादि और सब लोको के शक्ति का स्वामी हूं । जो मुझे जान जाता है संसार में वही मोह रहित है। वह सब पापो से मुक्त हो जाता है। क्योंकि सत्य भयमुक्ति संतुष्टि दया मोह इच्छा आदि प्राणियों के अलग अलग गुण हैं जो मुझ से ही उत्पन्न होते है। संसार के सभी प्राणी मुझ से ही उत्पन्न हुए है । यह सब जानते हुए ज्ञानी लोग मेरी उपासना करते है। मैं उसके हृदय में वास करके ऐसा ज्ञान दीप प्रज्वलित करता हु जिससे उन के मन का अंधकार दूर हो जाता है। 

यह सब सुनकर अर्जुन kesav से कहते है, भगवन सब ज्ञानी लोग आपके बारे में यही बातें बताते है। इसीलिए मैं आपकी कही गई सभी बातों को सत्य मनाता हूं। हे परम योगी अपने विभूतियों और रूपो के बारे में विस्तार से बताइए। मैं आपके द्वारा दिए गए ज्ञान से तृप्त ही नही हो पा रहा हु मैं चाहता हु कि मैं लगातार आपके बारे में सुनता ही रहूं । 

इस पर भगवान अपने रूपो के बारे बताते हुए कहते है कि मैं केवल अपने प्रमुख रूपो को बताऊंगा क्योंकि मेरे विस्तार का तो कोई अंत ही नही है। मैं सभी प्राणियों की आत्मा हू सभी वस्तुओं का आरंभ, मध्य और अंत हूं। मैं सभी चीजों में जो श्रेष्ठ होता है वही मैं हूं। मैं ही सभी वस्तुएं के उत्पन होने का कारण हूं। जो कुछ मैं तुझे बता रहा वह मेरे रूप का एक बहुत छोटा सा अंश मात्र है। मेरी विभूतियां बहुत ही विस्तृत है। 

लेकिन हे पार्थ तुझे इस विस्तृत ज्ञान की क्या आवश्यकता है तू तो बस इतना जान ले। कि पूरे संसार को अपने छोटे से अंश से संपूर्ण ब्रह्मांड में व्याप्त होकर संपूर्ण ब्रह्मांड को संभाले रहता हूं।

अर्थात साधारण मनुष्य को भगवान के बारे में विस्तृत ज्ञान की आवश्यकता नहीं होती है। वह तो सिर्फ अपने कर्म पर ध्यान दे। अपने कर्म को भगवान को समर्पित कर के अपने कर्म के पूरा करो। 

साथियों भगवान और उसकी शक्तियों के बारे में शब्दो में वर्णन नहीं हो सकता है। इसीलिए मैंने इस अध्याय के कई अनावश्यक बातों को अपने वीडियो में सामिल नही किया है जिससे आपका समय और ऊर्जा बचे। 

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साथियों इस संदर्भ में आज हम चर्चा करेंगे कि भगवद गीता के अध्याय 11 से हमे क्या सीख मिलती है। अब तक हमने भगवत गीता के 10 अध्यायो पर चर्चा कर ली है अगर आपने वह वीडियो नही देखी है तो डिस्क्रिप्शन बॉक्स में भगवद गीता का प्लेलिस्ट है वहा से सभी अध्यायों को देख सकते है।  साथ ही अन्य वीडियो की भी प्लेलिस्ट है।

भगवद गीता के अध्याय 11 में केशव अपने दिव्य रूप के बारे में बताते है और यह भी बताते है कि  कौन उनके दिव्य रूप तक पहुंच सकता है। तो आइए आज की वीडियो पर चर्चा प्रारंभ करते है।

अर्जुन केशव से कहते है हे केशव तुमने मुझे बहुत ही अमूल्य ज्ञान दिया है  जिससे मैं धन्य हो गया। अगर आपको लगता कि मैं आपके दिव्य रूप को देखने योग्य हो गया हू  तो आपसे निवेदन है कि मुझे अपना दिव्य रूप को दिखाए,  जिससे मैं धन्य हो सकू।

इस पर भगवान कहते है पार्थ तू मेरा सबसे प्रिय सखा है और तू मेरा शिष्य बन कर ज्ञान प्राप्त कर रहा है। इसीलिए तू मुझे देख पाने के योग्य हो चुका है लेकिन इन साधारण आंखो से मेरे दिव्य रूप देखना संभव नहीं है i इसके लिए मैं तुम्हे दिव्य दृष्टि देता हु।

 दिव्य दृष्टि देने के बाद भगवान अर्जुन को अपना दिव्य रूप दिखाते है। उस दिव्य रूप में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड समाया हुआ था उसमे संसार के सभी जीव जंतु विचरण कर रहे थे। 

अर्जुन भगवान के विशाल और भयानक स्वरूप को देख कर डर के मारे कांपने  लगते है और कहते है हे केशव मैं आपको पहचान नहीं सका था इसीलिए सखा समझ कर अनजाने में जो भी आपके साथ  हास परिहास किया हो आपका अपमान किया हो उन सभी अपराधो की क्षमा मांगता हूं। अर्जुन कहते है भगवन आपका दिव्य रूप बहुत ही विशाल और डरावना है मैं भय से कांप रहा हु कृपया अपने मानवीय रूप में वापस आ जाए।  इस पर भगवान फिर से अपने पुराने मानवीय रूप में आ जाते है।

अर्जुन ने देखा कि भीष्म पितामह, द्रोण दुर्योधन और हमारे पक्ष के भी कई वीर आपके मुख में  समा रहे थे। तू  अपने दांतो से उन्हे नष्ट कर रहा था। फिर केशव ने बताया हे पार्थ ये लोग पहले ही अपने कर्मो के सजा पा चुके है तू इन्हे मारे या ना मारे ये फिर भी नही बचेंगे। ये सब पहले ही मारे जा चुके है तू बस इनके मरने कर कारण बन  जा। इन्हे मार कर सत्ता का सुख भोग। आज यही तुम्हारा धर्म है और यही तुम्हारा कर्म है।  

पार्थ तुमने मेरा वह रूप देखा है जिसे देख पाना बहुत कठिन है देवताओं को भी यह रूप देखने की सदैव लालसा लगी रहती है। तुमने मेरा जो दिव्य रूप देखा है उसे न तो वेदों के अभ्यास के द्वारा, न शास्त्रों के अध्ययन के द्वारा न कर्म काण्ड की क्रियाओं के द्वारा न दान पुण्य के द्वारा न ही कठोर तपस्या द्वारा और न ही यज्ञों द्वारा देखा जा सकता है। लेकिन अनन्य भक्ति के द्वारा मेरे दिव्य  रूप को देखा जा सकता है मुझ में प्रवेश भी किया जा सकता है। 

जो व्यक्ति सिर्फ मेरे लिए ही कर्म करता है मुझे ही अपना लक्ष्य मानता है  जो मेरी ही उपासना करता है, जिसे कोई भी भी आसक्ति अथवा लगाव नही है। जो किसी भी प्राणी के प्रति शत्रुता या द्वेष की भावना नहीं रखता वह मुझ तक अवश्य पहुंच जाता है।

अर्थात हमे की भय के बिना किसी आसक्ति से अपना कर्म करना चाहिए। जिससे हम अपने जीवन में सफल हो सके। 

साथियों हमारा मकसद पुस्तक में लिखा महत्वपूर्ण ज्ञान आप तक पहुंचाना होता है जिससे आपका भी समय बचे और हमारा भी। इस अध्याय में भगवान के दिव्य।रूप के बारे बहुत लिखा था मुझे वह अनावश्यक लगा लीजिए उसे छोड़ दिया। 

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नमस्कार साथियों, भगवद गीता के अध्याय 12 में भगवान श्री कृष्ण बताते है कि सगुण भक्ति  निर्गुण भक्ति  में कौन सा भक्ति मार्ग  सबसे ज्यादा उत्तम है  और साथ ही यह भी बताते है कौन से भक्त उन्हें सबसे अधिक प्रिय है।  तो आइए आज की वीडियो पर चर्चा प्रारंभ करते है।

अर्जुन केशव से पूछते है केशव कुछ भक्त आपके सगुण रूप की उपासना करते है और कुछ भक्त अवियक्त निर्गुण परमेश्वर की उपासना करते है इन दोनो में से कौन सा भक्ति मार्ग सबसे उत्तम है?

इस पर भगवान कहते है पार्थ जो भक्त पूरी निष्ठा और भक्ति भाव से मेरी सगुण रूप की  उपासना करते है वो भक्त मुझे प्रिय होते है। और जो भक्त पूरी निष्ठा और भक्ति भाव से निराकार और अवियक्त निर्गुण ब्रह्म की उपासना करते है वो भक्त भी अंत में मुझे ही प्राप्त करते है।  

लेकिन शरीर धारी के लिए निर्गुण और निराकार ब्रह्म में ध्यान केंद्रित करना अत्यंत दुष्कर कार्य है। इसीलिए साधारण मनुष्य को पूरे मनोयोग और भक्ति भाव से मेरे सगुण रूप की उपासना करनी चाहिए। 

इसीलिए पार्थ तुझे स्थिर मन से मेरी उपासना करनी चाहिए। अगर तू उपासना करने में समर्थ नहीं है तो तुझे अभ्यास के द्वारा मुझ तक पहुंचना चाहिए। अगर तू अभ्यास करने में भी समर्थ नहीं है तो तू मेरी सेवा को ही अपना लक्ष्य बना ले। और मेरे लिए ही कर्म कर मेरे लिए कर्म करके, तू सिद्धि को प्राप्त कर लेगा। अगर तू यह भी न कर सके तो अपने कर्मो को मुझको समर्पित कर कर्मो से मिलने वाले कर्म फलों को त्याग दे। 

ज्ञान अभ्यास से अच्छा है, और ज्ञान से अच्छा है ध्यान , और ध्यान से भी अच्छा है कर्म फलों का त्याग क्योंकि कर्म फलों का त्याग करते ही मनुष्य को तुरंत शांति मिल जाती है। 

जो व्यक्ति किसी से द्वेष नहीं करता बिना स्वार्थ सभी से प्रेम करता है जो दयालु है , जिसमे अहंकार और ममता की भावना नही है जो दुख और सुख दोनो में समान रहता है जो धैर्यवान है जो हमेशा संतुष्ट रहता है जो अपने आप को मन तथा इंद्रियों से अपने वश में रखता है जो पक्के इरादे वाला है मेरा वह भक्त मुझे अत्यंत प्रिय है 

जिससे किसी को दुख नहीं पहुंचता, जो किसी के दुख से विचलित भी नहीं होता जो संसार से नही घबराता जिससे संसार नही घबराता जो आनंद भय क्रोध हर्ष भय और चिंता इन सब से रहित है। ऐसा वह भक्त मुझे प्रिय है। 

जिसे किसी से कोई आशा नहीं है जो भीतर बाहर से शुद्ध है जो कर्म में कुशल है जो चिंता रहित है जो दुखो से मुक्त है जो कर्म के किसी भी फल के लिए कोई भी कर्म नही करता । ऐसा वह भक्त मुझे प्रिय है। 

जो भक्त शत्रु मित्र में मान अपमान में शर्दी गर्मी में सुख दुख में निंदा प्रशंसा में इन सभी परिस्थियो में समान रहता है जो आसक्ति या लगाव से रहित है जो अपनी वाणी को अपने वश में रखता है और जो कुछ मिल जाए उसी से संतुष्ट रहता है जिसकी बुद्धि स्थिर है ऐसा वह भक्त मुझे प्रिय है। 

लेकिन वह भक्त मुझे सबसे अधिक प्रिय है जो पूरी श्रद्धा से मुझे अपना सर्वश्रेष्ठ लक्ष्य मानते हुए मुझसे जुड़ कर उपरोक्त अमर ज्ञान का अनुसरण करते है। 

अर्थात जो भक्त भगवान अपना परम लक्ष्य मान कर  पूरी श्रद्धा से भगवान की सगुण भक्ति मार्ग से भगवान की आराधना करता है।  भगवान के सेवा के लिए कर्म करता है। और भगवान के द्वारा दिए गए ज्ञान का अनुसरण करता है वो भक्त भगवान को सबसे अधिक प्रिय होता है। ऐसे भक्त का कल्याण होता है

साथियों इस चैनल पर हम अपने जीवन को सफल और सुगम बनाने वाले विषय पर चर्चा करते है और यह सीखते है कि कैसे हम चर्चित विषय को अपने जीवन में सामिल कर अपने जीवन को सफल बना सकते है। इसीलिए चैनल को सब्सक्राइब कर नोटिफिकेशन वाली घंटी को on कर दीजिए जिससे आप हमसे हमेशा जुड़े रहे। वीडियो या चैनल के लिए कोई सलाह या सुझाव हो तो कमेंट कर उसे अवश्य बताएं आपका एक एक कमेन्ट हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण है जिससे हमारी वीडियो की क्वालिटी में सुधार होता रहता है। अगर वीडियो अच्छी लगी हो तो Like कर हमे प्रोत्साहित करे। धन्यवाद




क्यों मृत्यु के बाद अच्छी या बुरी योनि में जन्म होता है? भगवद गीता अध्याय 13, lifelessonsbyguruji

नमस्कार साथियों, भगवद गीता के तेरहवाए अध्याय में भगवान श्री कृष्ण पुरुष, प्रकृति, ज्ञान, अज्ञान, पर ब्रह्म और मुक्ति के बारे में बताते हैं  और यह भी बताते है कि जीव अच्छी और बुरी योनि में जन्म क्यों लेता है।  तो आइए आज की वीडियो पर चर्चा प्रारंभ करते है।

अर्जन केशव से पूछते है  हे भगवान मैं जानना चाहता हूं कि क्षेत्र क्या है और उस क्षेत्र को जानने वाला उसका क्षेत्रज्ञ कौन है ज्ञान क्या है और ज्ञान का उद्देश्य क्या है?

 भगवान श्री कृष्ण अर्जुन से कहते है आज तुमने बहुत ही उत्तम प्रश्न किया है इसीलिए मैं तुम्हे इस प्रश्न का उत्तर विस्तार से दूंगा, पार्थ शरीर ही क्षेत्र कहलाता है इसी से सभी कर्म किए जाते हैं और जो इस क्षेत्र के तत्व को जान लेता है ऐसे तत्व ज्ञानी को क्षेत्र को जानने वाला क्षेत्रज्ञ अर्थात जीवात्मा कहते हैं। क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का ज्ञान अर्थात पुरुष और प्रकृति का उनके विकारों सहित इनका ज्ञान ही सच्चा ज्ञान समझा जाता है। 

ज्ञान है अभियान, छल कपट, अहंकार का न होना।  पुत्र पत्नी घर इत्यादि के प्रति कोई लगाव ना होना। अहिंसा क्षमा भाव सहनशीलता मन और वाणी की सरलता का होना शरीर और मन दोनों की शुद्धता , स्थिरता और आत्म संयम का होना।  सभी प्रिय अप्रिय घटनाओं के प्रति सदा सामान भाव का होना। मेरे प्रति दृढ़ अविचल भक्ति रखना। एकांत में आत्मा के ही ज्ञान में मग्न रहना हर सत्य में परमात्मा को ही खोजने और इन सब में परमात्मा को ही देखना यही सच्चा ज्ञान है। इसके अलावा सब कुछ अज्ञान है। 

अब मैं तुझे वह भी बताऊंगा जो जानने योग्य है और जिसे जान लेने से मनुष्य परम आनंद को पा लेता है  वह है पर ब्रह्म। पर ब्रह्म ज्ञान का विषय है और ज्ञान का लक्ष्य भी है वह सब के हृदय में स्थित है वह सब के दिल में रहता है। जो भी व्यक्ति यह ज्ञान को समझ लेता है वह मेरी दशा को प्राप्त होने योग्य बन जाता है।

जीव के सारे विकार और उसके सारे गुण भी इस प्रकृति से ही उत्पन्न हुए हैं जीव का शरीर और उसकी इंद्रियां प्रकृति से ही उत्पन्न होते हैं सभी कर्म सभी कर्तव्य  करने के साधन यह सब प्रकृति के कारण ही होते हैं । प्रकृति में स्थित होकर जीवात्मा पुरुष प्रकृति से ही उत्पन्न गुणों का अनुभव करती है उन गुणो को भोगती है इन्हीं गुणों के साथ  आसक्ति या लगाव  जीव की अच्छी या बुरी योनियों में उसके जन्म का कारण बनती है । जो कोई इस प्रकार आत्मा प्रकृति पुरुष और प्रकृति को उनके गुणों के साथ जान लेता है वह वर्तमान में जो भी कर्म करता रहे  फिर जन्म नहीं लेता। 

 कुछ लोग परमात्मा को ध्यान द्वारा अपने भीतर देखते हैं कुछ ज्ञान द्वारा परमात्मा का दर्शन करते हैं जबकि कुछ कर्म योग द्वारा ऐसा करते है। लेकिन बहुत से लोग ऐसे है जो ध्यान ज्ञान और कर्मों के मार्गों को नहीं जानते ऐसे लोग अन्य ज्ञानी लोगों से मेरे विषय में सुनते हैं और जो कुछ उन्होंने सुना है इस पर आस्था रखते हुए मेरी भक्ति में लग जाते हैं और मेरी इस भक्ति द्वारा वे भी मृत्यु के परे पहुंच जाते हैं।

 पार्थ तू इस बात को समझ ले कि संसार में जो भी कोई वस्तु उत्पन्न हुई है वह प्रकृति और पुरुष के सहयोग से इन दोनों के मेल से ही उत्पन्न हुई है। जो व्यक्ति परमात्मा को सभी वस्तुओं में समानरुपी निवास करते हुए देखता है  वही सही देखता है क्योंकि वह ईश्वर को सब जगह है समान रूप में निवास करते हुए देखता है।  जो व्यक्ति इस बात को देख लेता है कि सभी कर्म शरीर द्वारा ही किया जा रहे हैं जो शरीर प्रकृति से ही उत्पन्न हुआ है साथ में जो यह भी जान लेता है की आत्मा कर्म करने वाली नहीं है वही सही जानता है। जो लोग अपनी ज्ञान की आंखों से क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के अंतर को और सभी प्राणियों की प्रकृति से मुक्त हो जाने की विधि को जान लेते हैं वह परम लक्ष्य को पा ही लेते हैं।

अर्थात भगवद गीता के अनुसार हमारे अच्छी या बुरी योनी में जन्म लेने का कारण हमारी प्रकृति द्वारा उत्पन्न चीजों के प्रति हमारी अशक्ति या लगाव है जिन्हे हम छोड़ नही पाते। इसीलिए हमे प्रकृति में उपलब्ध किसी भी चीज या कर्म के प्रति कोई लगाव नही करना चाहिए। लगाव सिर्फ एक ही चीज से करना चाहिए वह है परब्रह्म परमात्मा।

भगवान सभी का कल्याण करे इसी कामना के साथ आज की चर्चा यही समाप्त करते है। धन्यवाद






नमस्कार साथियों, भगवद गीता के चौदहवें अध्याय में  भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को मनुष्य के तीन गुणों सत्व रजस और तमस के बारे में बताते है और यह भी बताते है कि इन गुणों को धारण करने के क्या-क्या फल हैं। साथ ही यह भी बताते है कि जो मनुष्य इन तीनों गुणों से भी ऊपर उठ जाता है उसकी क्या विशेषताएं हैं 

भगवान कहते हैं पार्थ अब मैं तुझे ज्ञान में भी जो सबसे श्रेष्ठ ज्ञान है वह बताता हूं जिसे जानने से ज्ञानी लोग संसार से ऊपर उठ कर परम गति तक पहुंच गए है और इस ज्ञान का सहारा लेकर मेरे स्वरूप वाला मेरे जैसा ही बनकर सृष्टि के आरंभ के समय ना तो जन्म लेते हैं और ना ही प्रलय आने पर वे विलीन होते हैं। 

 पार्थ महान ब्रह्म अर्थात प्रकृति गर्भ है और इसी में मैं बीज डालता हूं जिससे सभी वस्तुएं और जीव उत्पन्न होते हैं जहां कहीं भी जिस किसी भी योनि में जो कोई भी रूप उत्पन्न होता है महान ब्रह्म ही उन सब की मूल योनी है और मैं उसमें बीज डालने वाला उनके पिता हु। सत् रजस और तमस  अर्थात अच्छाई आवेश और आलस्य ये  तीनों गुण प्रकृति से ही उत्पन्न हुए हैं और यह तीनों गुण आत्मा को शरीर में बांध कर रखते है। 

इन तीनों में सत्गुण निर्मल और विकार रहित है। यह प्रकाश करने वाला है और पाप कर्म से मुक्ति दिलाने वाला है। सतगुण भी मनुष्य को सुख और ज्ञान इन दोनों के अभिमान से बंधन में डालता है

रजोगुण कामना और आसक्ति अर्थात लगाव से उत्पन्न होता है। यह मनुष्य को  कर्म और उसके फल की इच्छा और उसके साथ लगाव से बंधन में डाल देता है 

तमस अज्ञान से उत्पन्न होता है और यह मनुष्य को मोह में डाले रहता है  यह लापरवाही  आलस्य और निद्रा द्वारा मनुष्य को बंधन में डाले रखता है 

शतगुण मनुष्य को सुख आनंद में रजोगुण उसे कर्म में और तमोगुण उसके ज्ञान को ढककर मनुष्य को लापरवाही में लगाता है समय-समय पर युग युग में इन तीनों गुणों में से एक गुण प्रधान गुण हो जाता है और बाकी दोनों गुण दब जाते हैं । अर्थात तीनो गुण मनुष्य के भीतर ही होते है और समय समय पर 1 गुण उभर जाता है और बचे दोनो गुण दब जाते है।

जब ज्ञान का प्रकाश विवेक शक्ति और चेतना यह सब मनुष्य के शरीर और उसकी इंद्रियों में  दिखने लगे तब समझना चाहिए कि उसमें सतगुण बढ़ रहा है जब लोभ प्रवृत्ति सकाम कर्म और बहुत अधिक लालसा यह सब मनुष्य में उत्पन्न होने लगे तब समझना चाहिए कि उसमे रजोगुण बढ़ रहा है। जब मनुष्य में प्रकाश का अभाव होने लगे जब लापरवाही आलस्य और मोह यह सभी मनुष्य में उत्पन्न होने लगे तब समझना चाहिए कि उसमें तमोगुण बढ़ रहा है 

 मनुष्य की आत्मा उसके शरीर के मरने के बाद कहां जाएगी यह इस बात पर निर्भर करता है कि  उसकी मृत्यु किस गुण दशा में होती है। यदि मनुष्य की मृत्यु उस दशा में हो जब सद्गुण प्रधान हो तब उसकी आत्मा परम को जानने वालों विशुद्ध लोको में जायेगी और वही जन्म लेगी।  यदि इसकी मृत्यु तब हो जब रजोगुण प्रधान हो तब उसकी आत्मा कर्म में लिप्त लोगों के बीच जन्म लेगी। यदि  उसकी मृत्यु तब हों जब तमोगुण प्रधान हो तो वह पशु योनियों में जन्म लेगी।  

सत कर्मो का फल सात्विक और निर्मल होता है राजसिक कर्मो का फल दुख और तामसिक कर्मो का फल अज्ञानता और  मूर्खता होती है सद्गुण से ज्ञान उत्पन्न होता है  रजोगुण से लोभ और तमोगुण से लापरवाही और अज्ञानता उत्पन्न होते है। 

जो लोग सद्गुण में स्थित होते हैं ऊपर परम गति  की ओर उठते रहते और स्वर्ग में जाते है।  रजोगुण वाले लोग बीच के क्षेत्र अर्थात् पृथ्वी में रहते है और तामसिक प्रवृत्ति वाले लोग बुरे कर्मों में लगे रहने के कारण नीचे नरक को प्राप्त करते हैं जब मनुष्य यह जान लेता है कि सभी कर्मों में इन तीनों गुणों के अलावा और कोई कर्ता नहीं है और जब वह उसको भी जान लेता है जो कि इन तीनों गुणों से भी परे है तब वह मेरे स्वरूप को पा लेता है तब वह मेरे जैसा ही बन जाता है जब मनुष्य शरीर से उत्पन्न होने वाले सत रजस तमस इन तीनों गुना से ऊपर उठ जाता है तब वह जन्म मरण वृद्धा अवस्था और दुखों से छूट जाता है और तब उसे अमर जीवन मिल जाता है।

 अर्जून इसके बारे में और अधिक जानना चाहता है और भगवान से पूछता है हे केशव  जो व्यक्ति इन तीनों गुणों से ऊपर उठ जाता है उसकी क्या पहचान होती है उसका आचरण कैसा होता है और वह इन तीनों गुणों से परे कैसे पहुंचता है ।

भगवान अर्जुन को समझाते है पार्थ जो व्यक्ति अपने अंदर लगाव और मोह के उत्पन्न होने पर  इन्हें बुरा नहीं मानता इनसे घृणा नहीं करता और  जब ये लुप्त हो जाए  तब वह उनकी कामना भी नहीं करता। सदा संतुष्ट सदा इच्छा मुक्त वह गुणों की  समस्त प्रतिक्रियाओं से विचलित हुए बिना शांत रहता है और जो दुख सुख समान समझता है जो मिट्टी पत्थर हीरे जवाहरात और सोना चांदी इन सब को समान समझता है जो अच्छी या बुरी वस्तुओं में अच्छी या बुरी परिस्थितियों में एक सा रहता है जो धीर है जो निंदा स्तुति मान अपमान को एक जैसा ही समझता है जो मित्र तथा शत्रु के साथ एक जैसा व्यवहार करता है और जिसने सभी कर्मों और उन कर्मों के सभी फलों को भी त्याग दिया है। ऐसा व्यक्ति श्रेष्ठ है और उसे गुणों से ऊपर उठा हुआ कहा जाता है।

 जो व्यक्ति बिना विचलित हुए भक्ति योग से मेरी  सेवा करता है वह तीनों गुणों से ऊपर उठकर परम ब्रह्म को प्राप्त कर लेता है और क्योंकि मैं अमर अनुस्वर ब्रह्म और शाश्वत धर्म तथा परम आनंद का निवास स्थान हूं जो पुरी भक्ति और पूरी निष्ठा से मेरी सेवा और उपासना करता है वह तीनों गुणों से ऊपर उठ  जाता और मुझे प्राप्त कर लेता है।

अर्थात व्यक्ति को हर परिस्थिति में एक समान रहना चाहिए। उसे मित्र और शत्रु के साथ समान भाव से व्यवहार करना चाहिए। उसे मेहनत करके धन कमाना चाहिए । 

साथियों, सर्वे भवन्तु सुखिन, अर्थात सभी लोग सुखी हो इसी कामना के साथ आज की चर्चा यही समाप्त करते है। धन्यवाद




नमस्कार साथियों, भगवद गीता के अध्याय 15 भगवान श्री कृष्ण मानव जीवन का वर्णन पीपल के पेड़ के रूप में करते हैं और यह भी बताते है कि मानव कैसे जन्म मरण के चक्कर से मुक्ति पा सकता है। तो आइए आज की वीडियो की चर्चा करते है। 


श्री कृष्ण कहते हैं सुन पार्थ मानव जीवन कभी नष्ट न होने वाले पीपल के वृक्ष की तरह है जैसा कि पीपल के वृक्ष के जड़े ऊपर की ओर है और उसके टहनियां नीचे की ओर है। इस वृक्ष के पत्ते वेद है। और जो इस वृक्ष को सही रूप को जान लेता है वह वेदों को और जीवन के रहस्य को भी जान लेता है इस जीवन रूपी पेड़ की शाखाएं ऊपर नीचे फैली हुई है और प्रकृति के तीनों गुणों सत्व रजस और तमस द्वारा पोषित होती है इंद्रियों के विषय इस पेड़ की गोपले हैं और इसकी जड़े नीचे लोक में सभी और फैली हुई है यह जड़े कर्म है जो मनुष्य को संसार में मजबूती से बांधे रखती है जिसके कारण उसे बार-बार जन्म लेना पड़ता है इस जीवन रूपी पेड़ का असली रूप यहां मनुष्य लोक में दिखाई नहीं देता। जन्म मरण के चक्कर से मुक्ति के लिए पक्की जड़ों वाले जीवन के पेड़ को जड़ से काटना होगा । इस पेड़ को वैराग्य रूपी कुल्हारी से जड़ से काट कर उस शास्वत रूपी मार्ग की खोज करनी चाहिए जो मुक्ति की ओर ले जाता है जिस पर चल कर व्यक्ति को फिर संसार में वापस नही लौटना होता है। 

 जिन लोगो ने अभिमान और मोह को जीत लिया है जिन्होंने इन दोनों से छुटकारा पा लिया है जिन्होंने आशक्तियो जैसे दोष को जीत लिया है जिन्होंने सुख-दुख आदि के द्वंदों इनकी दुविधाओं को समझ कर उनसे मुक्ति पा ली है और जिनकी इच्छाएं भी समाप्त हो चुकी है वे उस सनातन पथ पर पहुंच जाते है जो सूर्य चंद्रमा और अग्नि के प्रकाश से भी कहीं तेज है और जहां पहुंचकर जीव को फिर अविनाशी संसार में वापस नही लौटना होता है। वही मेरा परम धाम है। 

मुझ अविनाशी का एक छोटा सा ही अंश नित्य जीव बनता रहता है और जीव बनकर वह जीवन के संसार में पांचों इंद्रीयो और मन से साथ शरीर धारण करता है। और जब जीव शरीर को छोड़ता है तब वह शरीर की उन इंद्रियों को और मन को अपने साथ वैसे ही ले जाता है  जैसे सुगंधो को हवा अपने साथ उड़ा ले जाती है। जीव पांच ज्ञानेंद्रिय तथा मन का उपयोग करता हुआ उन सबके विषयों का आनंद लेता है जबकि ईश्वर रूपी आत्मा शरीर में  ही रहती है  अज्ञानी लोग अपने अंदर ही निवास करने वाली अपनी इस ईश्वर रूपी आत्मा को देख नहीं पाते।  पूरी तरह से साधना में लगे हुए योगी लोग ही ज्ञान के माध्यम से अपने अंदर स्थित अपने अंदर निवास करने वाली उस परमात्मा को देख पाते हैं।  

सारे संसार को प्रकाशित करने वाले सूर्य का तेज भी मेरा ही तेज है ऐसे ही चंद्रमा और अग्नि में भी जो तेज है वह भी मेरा ही तेज है पृथ्वी लोक में प्रवेश करके अपनी प्राण शक्ति द्वारा मैं जीवों को धारण करता हूं और वनस्पतियों का पोषण करता हूं सभी प्राणियों के शरीर में जीवन के पाचन अग्नि बनकर उनके अंदर आने वाले और बाहर निकलने वाले स्वास्थ्य में मिलकर चारों प्रकार के अन्नो को पचाता हूं । मैं सबके हृदय में निवास करता हूं मैं सबके दिल में रहता हूं मुझसे ही स्मृति और ज्ञान होते हैं और मैं ही उनमें होने वाले संशय तथा अभाव का विनाश करता हूं वास्तव में मैं ही वह हूं जिसे सभी वेदों के द्वारा जाना जाता है ।

 संसार में दो तरह के जीव उत्पन्न होते है  नश्वर और अनश्वर।  संसार में जिनका अंत होता है वह नश्वर है और जो नष्ट नहीं होते और वह अनस्वर है। भौतिक जगत के सभी जीव नश्वर हैं और न बदलने वाली आत्मा अनश्वर है लेकिन इन दोनों नश्वर और अनश्वर से भी परे एक और जीव है जिसे परमात्मा कहा जाता है। वह परमात्मा अमर ईश्वर के रूप में तीनों लोकों में प्रवेश करती है। और उनका भरण पोषण भी करती है।

मैं नश्वर और अनश्वर से भी ऊपर हूं और सबसे श्रेष्ठ हूं इसलिए इस संसार में मैं ही पुरषोत्तम माना जाता हूं। जो कोई बिना संदेह मुझ पुरुषोत्तम को इस प्रकार जान लेता है समझ लो पार्थ कि उसने सब कुछ जान लिया है और वह अपने संपूर्ण अस्तित्व से अपने संपूर्ण अंतरात्मा से मेरी उपासना करता है ।

इस प्रकार पार्थ मैंने तुझे यह सबसे अधिक रहस्य वाला ज्ञान बता दिया है इसे जानकर मनुष्य ज्ञानी बन जाता है उसके सभी कर्म और कर्तव्य पूरे हो जाते हैं और वह अमर होकर परम गति को प्राप्त कर लेता है।

अर्थात मनुष्य को मोह माया ममता को त्याग कर परमात्मा की खोज में लग जाना चाहिए। इसके लिए उसे ज्यादा दूर नहीं जाना होता परमात्मा का अंश उसके शरीर के भीतर ही आत्मा के रूप में हमेशा रहता  है। जब व्यक्ति ज्ञान द्वारा उस परमात्मा को जान लेता है उसके बाद बिना संदेह उस परमात्मा को मान कर सच्चे मन से उसके दिखाए गए मार्ग पर चलता है तो उसका कल्याण हो जाता है। 

अपनी आज की चर्चा को यही विराम देते है।  जल्द मिलते है अगली वीडियो में। तब तक के लिए सर्वे भवन्तु सुखिन राधे राधे 


नमस्कार साथियों  भगवद गीता के 16वे अध्याय में भगवान श्री कृष्ण, देव स्वभाव वाले मनुष्य और असुर स्वभाव वाले मनुष्य के गुणों का वर्णन करते है। साथ ही नरक के तीन द्वार इच्छा क्रोध और लोभ के बारे में बताते है। तो आइए आज की चर्चा प्रारंभ करते है।


 भगवान कहते है हे पार्थ संसार में  दो प्रकार के मनुष्य होते है देव स्वभाव वाले मनुष्य और असुर स्वभाव वाले मनुष्य, देव स्वभाव वाले लोगों के विशेष गुण है निर्भयता,  मन की शुद्धता, ज्ञान और योग का सही-सही तथा संतुलित पालन, दान, आत्म संयम, यज्ञ करना, शास्त्रों का अध्ययन, तप और ईमानदारी, अहिंसा, सत्य, क्रोध न करना, त्याग, शांति, दूसरों में दोष ना ढूंढना, करुणा, लोभ का ना होना, कोमलता, मिठास, लज्जा, स्थिरता, क्षमा, तेज, धैर्य, पवित्रता का होना तथा द्वेष ईर्ष्या और अभिमान इन तीनों का ना होना।

देव स्वभाव वाले गुण मोक्ष दिलाने वाले हैं जबकि असुर स्वभाव वाले बंधन में डालने वाले हैं तो दुखी मत हो पार्थ क्योंकि तू तो देव स्वभाव लेकर जन्म लिया है। 

 असुर स्वभाव के लोगों में दंभ, दिखावा, घमंड, बहुत अधिक अभियान, कठोरता, अज्ञान और पाखंड विशेष है  असुर स्वभाव वाले लोग ना तो कर्म के मार्ग को जानते हैं न हीं त्याग के मार्ग को जानते हैं उनमें ना तो पवित्रता पाई जाती है और ना ही उनमें सत्य पाया जाता है, वे मानते है कि संसार मिथ्या है इसका कोई आधार नहीं है इसका कोई नियामक नहीं है वे कहते हैं कि यह संसार किसी नियमित कारण की वजह से नहीं बना बल्कि केवल काम इच्छा से ही बना है इस दृष्टिकोण को मजबूती से अपनाकर ये थोड़े ज्ञान वाले और बुद्धि हीन लोग ऐसे क्रूर कर्म करने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं जिससे संसार का अहित ही होता है और इसलिए विनाश का कारण बनते हैं काम इच्छा से कभी भी तृप्त न होने वाली लालसा के वश में होने के कारण पाखंड, घमंड, बहुत अधिक अभियान और अहंकार से भरे गलत दृष्टिकोण अपनाकर वे  बुरे इरादों से ही कर्म करते हैं, वह ऐसी अनगिनत चिंताओं से दबे रहते हैं जो उनकी मृत्यु के साथ ही समाप्त होती है, वे अपनी इच्छाओं की तृप्ति को ही सबसे ऊंचा लक्ष्य मानते हैं और साथ में यह भी समझते हैं कि बस यही सब कुछ है और इसके सिवाय और कुछ भी नहीं है। लालसा और क्रोध के वश में होकर वे अपनी इच्छाओं की तृप्ति के लिए अन्यायपूर्ण और गलत तरीकों से खूब सारी धन संपत्ति इत्यादि इकट्ठी करने में लगे रहते हैं। वे  सोचते है कि भविष्य में और धन संपत्ति आदि भी मेरी हो जाएगी इस शत्रु को मैंने मार डाला है और दूसरे अन्य शत्रु को भी मैं मार डालूंगा। मैं ईश्वर हूं मैं आनंद लेने वाला हूं मैं बलवान हूं मैं सुखी हूं मैं धनवान हूं और ऊंचे कुल में जन्म हूं मेरे बराबर और कौन है मैं यज्ञ करूंगा मैं दान दूंगा। वे अज्ञान के कारण मोह ग्रस्त होकर ऐसी बातें करते हैं अपनी सोच और अपने विचारों के कारण में भ्रम में फंसे हुए और अपनी इच्छाओं  से लगाब के कारण वे अपवित्र नर्क में गिरते हैं।अभिमान और धन के अहंकार से भरे नियमों का ध्यान रखें बिना वे केवल नाम के लिए ही यज्ञ करते है। अभिमान काम और क्रोध के वश में होकर यह द्वेषी लोग उनके अपने तथा अन्य लोगों के शरीर में निवास करने वाले मुझ ईश्वर से भी घृणा करते हैं। क्रूर बुरे कर्म और द्वेष करने वालों को मैं हमेशा जन्म मृत्यु के चक्कर में तथा आसुरी योनियों में ही भेजता रहता हूं यह लोग जन्म जन्मांतर में भी मुझे प्राप्त नहीं कर पाते बल्कि यह नरक की ओर ही गिरते हैं । 

आत्मा को विनाश की ओर ले जाने वाले इस नरक के तीन द्वार है इच्छा क्रोध और लोभ। इसलिए मनुष्य को इन तीनों को त्याग देना चाहिए जो अंधकार की ओर ले जाने वाले नरक के इन तीनों द्वारों से छूट जाता है वह उन कर्मों को ही करता है जो आत्मा के लिए कल्याणकारी है और उसे परम गति मिल जाती है लेकिन जो व्यक्ति शास्त्रों के नियमों को छोड़ देता है और अपनी इच्छाओं के अनुसार ही कर्म करता रहता है उसे ना तो सिद्धि मिलती है ना सुख मिलता है और ना ही उसे परम गति ही मिलती है।

 इसलिए पार्थ क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए यह तय करने के लिए तू शास्त्रों को ही प्रमाण मान और शास्त्र में बताए गए नियमों के अनुसार ही तुझे अपना कर्म और कर्तव्य करते रहना चाहिए।  

साथियों इसीलिए हमे हमेशा वो ही कर्म करने चाहिए जिससे समाज देश और मानव जाति का भला हो और ईच्छा क्रोध और लोभ से दूर रहना चाहिए। जिससे आपके साथ साथ सभी मानव जाति का कल्याण हो सके।

साथियों इसी के साथ मैं अपनी चर्चा को यही विराम देता हूं आप आपकी चर्चा कमेंट के माध्यम से करिए। हमारी टीम हर कमेंट को रीड और रिप्लाई करती है। आगे भी इसी तरह की चर्चा में भाग लेने के लिए चैंनल को सब्सक्राइब करके ऑल वाली बेल को on कर दीजिए ।  साथियों जल्द मिलेंगे ऐसी ही ज्ञान वर्धक  वीडियो की चर्चा में। आज की चर्चा में शामिल होने के लिए आप सभी का धन्यवाद, 
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भगवद गीता के 17वे अध्याय में भगवान श्री कृष्ण प्रकति के तीन गुणों सत्व रजत तमस के अनुसार तीन प्रकार की श्रद्धा तीन प्रकार के यज्ञ तीन प्रकार के तप तीन प्रकार के दान के बारे में बताते हैं। जिन्हे करके मनुष्य अपने लक्ष्यों को प्राप्त कर सकता है। तो आइए आज की चर्चा प्रारंभ करते है।


अर्जुन केशव से पूछते है हे केशव जो लोग शास्त्रों के विद्याओं से हटकर पूरी श्रद्धा से यज्ञ करते हैं उनकी क्या स्थिति होती है क्या उनकी श्रद्धा सात्विक राजसिक या तामसिक होती है। भगवान कृष्ण बताते है हे पार्थ सभी प्राणियों की श्रद्धा उनके स्वभाव के अनुसार सात्विक राजसिक या तामसिक होती है हर एक प्राणी की श्रद्धा उसके अंतःकरण के अनुरूप ही होती है जिसकी जैसी श्रद्धा होती है वह स्वयं भी वही होता है। सात्विक लोग देवताओं की उपासना करते हैं राजसिक लोग यक्षों और राक्षसों की और तामसिक लोग भूत प्रेतो की उपासना करते हैं जो लोग दिखावा पसंद होते हैं जो अहंकार और कामवासना से भरे हुए हैं तथा जो किसी वस्तु की लालसा से प्रेरित होकर ऐसे कठोर तप करते हैं जो शास्त्रों द्वारा अनुमोदित नहीं है ऐसे लोग अपनी मूर्खता के कारण अपने शरीर में स्थित तत्वों के समूह को और साथ ही शरीर में निवास करने वाले मुझ परमेश्वर को भी सताते हैं ऐसे लोगों को तू आसुरी स्वभाव वाला ही मनुष्य समझ। प्रत्येक व्यक्ति का आहार भी उनके प्राकृतिक गुणों सत्व रजस और तमस के अनुसार तीन प्रकार का होता है ऐसे ही यज्ञ तप और दान भी तीन प्रकार के होते हैं।

भोजन - जो भोजन जीवन, प्राण, शक्ति, स्वास्थ्य, आनंद, प्रीति और उल्लास को बढ़ाते हैं ऐसे भोजन सात्विक होते हैं और वह भोजन सात्विक लोगों को प्रिय होते हैं। जो भोजन कड़वे, तीखे, नमकीन, बहुत गर्म, चटपटे, रूखे और जलन पैदा करने वाले होते हैं जो दुख शोक और रोग उत्पन्न करते हैं ऐसे भोजन राजसिक होते हैं और वह राजसिक लोगों को प्रिय होते हैं जो भोजन अपाच्य हो जो बिगड़ गया हो जो सड़ गया हो जो बासी हो बेस्वाद हो जूठा हो ऐसे भोजन तामसिक होते हैं और वह तामसिक लोगों को प्रिय है 

यज्ञ -- जो यज्ञ शास्त्रों के नियमों के अनुसार है जो फल की इच्छा न रखने वाले लोगों द्वारा इस विश्वास से किया जाता है कि यज्ञ करना उनका नियत कर्तव्य है ऐसा यज्ञ सात्विक होता है जो यज्ञ किसी फल की आशा से या जो दिखावे के लिए किया जाता है वह यज्ञ राजसिक होता है और जो यज्ञ बिना श्रद्धा के और बिना नियमों के किया जाता है जिसमें मंत्र नहीं पढ़े गए जिसमें प्रसाद नहीं बाटा गया और जिसमें दक्षिणा नहीं दी गई ऐसा यज्ञ तामसिक होता है 

तप - देवताओं की उपासना गुरुजनों ब्राह्मण और ज्ञानियों का आदर सत्कार पवित्रता सरलता ब्रह्मचर्य और अहिंसा यह शरीर का तप कहलाता है मन की संतुष्टि, सौम्यता, मौन स्वभाव , की शुद्धि आत्म संयम मन का नियंत्रण यह मानसिक तप कहलाता है। ऐसे शब्द बोलना जो सत्य प्रिय और हितकर हो और ऐसे शब्द न।बोलना जो दूसरों को दुख पहुंचाए या बुरे लगे है और नियमित रूप से वेद शास्त्रों का पाठ यह वाणी का तप कहलाता है। यदि यह तीनों तप अर्थात शरीर मन और वाणी के तप संतुलित मन वाले व्यक्ति द्वारा फल की इच्छा रखे बिना पूरी श्रद्धा से किए जाए तो सात्विक तप कहलाता है। यदि तप सत्कार सम्मान या प्रतिष्ठा पाने के लिए या दिखावे के लिए किया जाता है तो वह राजसिक तप कहलाता है वह अस्थिर और अस्थाई होता है और यदि तप मूर्खता पूर्ण और दुराग्रह के साथ अपने आप को कष्ट देकर या दूसरों को हानि पहुंचाने के नियत किया जाता है वह तामसिक तप कहलाता है।

 दान - जो दान ऐसे व्यक्ति को दिया जाता है जिससे किसी प्रतिफल की आशा न हो जो इस भावना से दिया जाता है कि दान देना हमारा कर्तव्य है और जो दान उचित स्थान पर उचित समय पर और जो योग्य व्यक्ति को दिया जाता है ऐसा दान सात्विक माना जाता है । जो दान किसी प्रतिफल की आशा से या भविष्य में कोई लाभ मिलने की आशा से दिया जाता है और जिस दान को देने में कष्ट या क्लेश होता है ऐसा दान राजसिक माना जाता है और जो दान अयोग्य व्यक्ति को दिया जाता है जो अनुचित स्थान पर अनुचित समय पर बिना उचित ध्यान के या जो तिरस्कार की भावना से दिया जाता है ऐसा दान तामसिक माना जाता है 

ओम तत् सत्त शब्द ब्रह्म के प्रतीक समझे जाते हैं आदिकाल से ही इनके द्वारा ब्रह्म वेद और यज्ञों का विधान किया गया है इसलिए ब्रह्मवादी लोगों द्वारा शास्त्रों में बताई गई यज्ञ तप और दान की क्रियाएं हमेशा ओम शब्द का उच्चारण करके विधि अनुसार आरंभ की जाती है। प्रतिफल की इच्छा रख के बिना मोक्ष की इच्छा रखने वाले लोगों द्वारा यज्ञ तप और दान की विभिन्न क्रियाएं तत् शब्द का उच्चारण करके संपन्न की जाती है सत शब्द का प्रयोग सच्चाई सदभाव और अच्छाई के अर्थ में तथा प्रमाणिक उत्तम कार्यों के लिए भी प्रयोग किया जाता है

 यज्ञ तप और दान में दृढ़ता से मजबूती से स्थित रहना भी सत कहलाता है और इसी प्रकार इन सभी प्रयोजनों से तथा परमात्मा के लिए किया गया कोई भी काम सत कहलाता है बिना श्रद्धा के किया गया कोई भी यज्ञ बिना श्रद्धा के किया गया कोई भी तप बिना श्रद्धा के किया गया कोई भी कर्म और बिना श्रद्धा के दिया गया कोई भी दान यह सब के सब असत कहलाते हैं और असत का ना तो इस जीवन में ना इस लोक में और ना ही परलोक में कोई लाभ मिलता है। 


अर्थात हम जो भी काम करते है उस काम करने का मोटिव ज्यादा महत्वपूर्ण है। अच्छे मन और लोक कल्याण की भावना से किया गया कार्य आपको अपने लक्ष्य तक पहुंचा सकता है। इसी के साथ मैं अपनी चर्चा को यही विराम देता हूं आप आपकी चर्चा कमेंट के माध्यम से अवश्य कीजिए। आप कॉमेंट के माध्यम से हमारे लिए कोई भी सलाह और सुझाव भी दे सकते है। हमारी टीम हर कमेंट को रीड और रिप्लाई करती है। आगे भी इसी तरह की चर्चा में भाग लेने के लिए चैंनल को सब्सक्राइब करके ऑल वाली बेल को on कर दीजिए । साथियों जल्द मिलेंगे ऐसी ही ज्ञान वर्धक वीडियो की चर्चा में। आज की चर्चा में शामिल होने के लिए आप सभी का धन्यवाद, राधे राधे




जय श्री कृष्णा, आज की वीडियो में हम चर्चा करेंगे कि भगवद गीता के 18वे अध्याय की। यह भगवद गीता का अंतिम अध्याय है यह अध्याय थोड़ा बड़ा और बहुत ही महत्वपूर्ण है  इसीलिए इस अध्याय को तीन भागों में बांट कर चर्चा करेंगे ताकि कोई भी महतवपूर्ण विषय छूट न जाए।  पहले भाग में हम चर्चा करेंगे कि  त्याग और संन्यास में क्या अंतर हैं। साथ ही साथ यह जानेंगे कि त्याग कर्म का नहीं बल्कि कर्म के फल का किया जाना चाहिए।   तो आज की वीडियो पर चर्चा प्रारंभ करते है।

अर्जुन भगवान से पूछते है कि हे केशव मैं सन्यास और  त्याग के बारे में जानना चाहता हूं इन दोनों में क्या अंतर है मुझे समझाए, 

 भगवान उसे समझाते हैं सुन पार्थ कुछ विद्वान मानते है कि  कर्म को पूरी तरह से त्याग देना चाहिए अर्थात कोई काम नही करना चाहिए इससे कर्म फल से होने वाले पाप नही लगते विद्वान ऐसे लोगो को सन्यासी कहते है जबकि कुछ अन्य विद्वान मानते है कि कर्म के फलों का त्याग करना चाहिए। 

 इस विषय में मेरा निर्णय है कि सभी कर्मों को पूरी तरह त्याग देना सन्यास कहलाता है जबकि अपने कर्म के फल को पूरी तरह त्याग देना त्याग कहलाता है जहां सन्यास सभी कर्मों का त्याग है वही त्याग कर्मों के सभी फलों की इच्छा का त्याग है। 

अब तू त्याग के बारे में सच्चाई को सुन, यज्ञ दान और तप जैसे कर्मों का त्याग कभी नहीं करना चाहिए बल्कि उन्हें करते ही रहना चाहिए क्योंकि यह तीनों कर्म उन्हें करने वाले बुद्धिमान लोगों को पवित्र करने वाले होते हैं लेकिन इन कर्मों को भी इनके प्रति आसक्ति या लगाव और इनके फलों की इच्छा को भी पूरी तरह त्याग कर ही इन्हें करना चाहिए। पार्थ त्याग तीन प्रकार का होता है 

 किसी भी करने योग्य कर्म का त्याग उचित नहीं है अपना नियत कर्तव्य और कर्म कभी त्यागना नहीं चाहिए अज्ञान और मोह के कारण किया गया कर्म का ऐसा त्याग तामसिक त्याग कहलाता है 

जो व्यक्ति अपने नियत कर्तव्य और कर्म का त्याग सिर्फ इसलिए करता है कि उसे उन्हें करने में शारीरिक कष्ट होता है या उसे उन्हें करने में उसे शारीरिक दुख का भय है तो वह राजसिक त्याग करता है। और उसे उस त्याग का कोई लाभ अथवा फल नहीं मिलता।  

लेकिन जो व्यक्ति अपने नियत कर्म और कर्तव्य को अपना धर्म मानकर उसे करता रहता है और उसके प्रति पूरी आसक्ति तथा उसके फल को भी त्याग देता है उसका त्याग सात्विक माना जाता है।

 वह बुद्धिमान व्यक्ति जो कर्म के फलों का त्याग करता है जिसके सारे संदेह समाप्त हो गए हैं और जिसका स्वभाव सात्विक है ऐसा व्यक्ति सदैव सद्गुण में ही स्थित रहता है उसे ना तो बुरे कर्म से कोई घृणा होती है और ना ही अच्छे कर्म से कोई लगाव होता है। 

 पार्थ किसी  भी देह धारी  प्राणी के लिए कर्म का पूरा त्याग असंभव है कर्म तो सभी को करने पड़ते है लेकिन जो कर्म के फल को त्याग देता है वास्तव में वही त्यागी कहलाता है जिन लोगों ने अपने जीवन काल में अपने कर्म के फल का त्याग नहीं किया है उन्हें मृत्यु के बाद फल अवश्य मिलता है जो तीन प्रकार का होता है अच्छा बुरा और मिला-जुला और यह कर्म फल ही पुनः जन्म का कारण बनता है। लेकिन जिन्होंने अपने जीवन काल में ही कर्म के फल को त्याग दिया है उन्हें मृत्यु के बाद कोई फल नहीं मिलता वे कर्म के फल और उस फल से होने वाले बंधन से भी छूट जाते हैं और इसलिए वह पुनः जन्म के चक्कर से भी निकल जाता है।

 वेदांत में कर्म करने के लिए आवश्यक पांच कारण बताएं हैं 
पहला कर्म का स्थान अर्थात शरीर 
दूसरा कर्म करने वाला कर्ता अर्थात विभिन्न इंद्रियां 
तीसरा उस कर्म को करने के लिए साधन 
चौथा अनेक प्रकार के प्रयास जो उस कर्म को करने में लगते है।
पांचवा भाग्य या परमात्मा जो सबको संभव बनाता है। जो यह सब करवा रहा होता है। 

 मनुष्य  जो भी कोई उचित या अनुचित कर्म करता है वह पांचो कारणों इन पांचो तत्वों की वजह से ही होता है लेकिन कोई व्यक्ति  अपने  अज्ञान और अहंकार के कारण यह मान लेता है कि  मैं अकेला ही करने वाला हु। वह अज्ञानी है। और वह इनके सही स्वरूप को नहीं देख रहा होता है। 

जिस मनुष्य में यह अहंकार की भावना नहीं है जो यह समझता है कि सभी कर्मो में परमात्मा का भी हाथ है। जिसकी बुद्धि कर्म के फल में आसक्त नही है। वह इन सभी मनुष्यों को मारता हुए भी उन्हे नहीं मारता और इसलिए वह अपने कर्मों के कारण बंधन में भी नहीं बंधता 

अर्थात किसी भी सामाजिक प्राणी के लिए कर्म का त्याग करना उचित नहीं है क्योंकि व्यक्ति को कर्म करने ही पड़ते है चाहे वह किसी भी परिस्थिति या पद पर हो। व्यक्ति को कर्म का नही बल्कि उसके कर्म फलों का त्याग करना चाहिए अर्थात व्यक्ति सिर्फ कर्म करे और उस कर्म के द्वारा मिलने वाले फल को भगवान पर छोड़ दे। सिर्फ साक्षी भाव से अपना कर्म करे। जिससे व्यक्ति चिंता मुक्त और पूरे संतुष्टि के भाव से अपना काम कर सकेगा। उदाहरण के लिए अगर कोई व्यक्ति  किसी को कुछ दान करता है और उसके बाद यह सोचे की उसका अब कुछ बुरा नही होगा क्योंकि उसने बहुत बड़ा दान किया है तो वह व्यक्ति गलत सोचता है उस व्यक्ति को दान करके उसके फल के बारे में सोचना भी नही चाहिए। कर्म के फल को भगवान के चरणों में समर्पित कर देना चाहिए।

इसी के साथ मैं अपनी चर्चा को यही विराम देता हूं आप आपकी चर्चा कमेंट के माध्यम से अवश्य कीजिए। आप कॉमेंट के माध्यम से हमारे लिए कोई भी सलाह और सुझाव भी दे सकते है। हमारी टीम हर कमेंट को रीड और रिप्लाई करती है। आगे भी इसी तरह की चर्चा में भाग लेने के लिए चैंनल को सब्सक्राइब करके ऑल वाली बेल को on कर दीजिए । साथियों जल्द मिलेंगे ऐसी ही ज्ञान वर्धक वीडियो की चर्चा में। आज की चर्चा में शामिल होने के लिए आप सभी का धन्यवाद, 

राधे राधे





जय श्री कृष्णा, साथियों आपका स्वागत है आपके अपने चैनल में, इस चैनल पर हम पुस्तकों से मिलने वाले लाइफ lessons पर चर्चा करते है, आज की वीडियो में हम चर्चा करेंगे कि भगवद गीता के 18वे अध्याय के भाग 2 की। इस भाग में भगवान हमे, प्रकृति के तीनो गुणों के अनुसार तीन प्रकार के कर्म, तीन प्रकार के ज्ञान, तीन प्रकार के कर्ता, तीन प्रकार की बुद्धि, तीन प्रकार की धृति, तथा तीन प्रकार के सुख के बारे में बताते हैं।  तो आइए  आज की वीडियो पर चर्चा प्रारंभ करते है।




मनुष्य को कर्म की प्रेरणा देने वाले तीन कारण होते हैं ज्ञान , ज्ञान का उद्देश्य और उसे जानने वाला कर्ता। 

ज्ञान कर्म और कर्ता के भी तीन-तीन भेद होते हैं। सात्विक ज्ञान वह ज्ञान है जिससे मनुष्य सभी अलग-अलग प्रकार की वस्तुओं और प्राणियों में एक ही कभी भी नष्ट न होने वाली सत्ता देखता है जिसे वह हिस्सों में बटा होने पर भी अविभाजित रूप में या बटा हुआ नहीं देखता इसमें वह ईश्वर को सब प्राणियों में और सारी सृष्टि में समान रूप में एक जैसा ही देखता है।

राजसिक ज्ञान वह ज्ञान है जिससे मनुष्य विभिन्न प्राणियों का उनकी विविधता के कारण उनका अलग-अलग होना देखता है वह ईश्वर की कभी नष्ट न होने वाली सत्ता को,  प्राणी और वस्तुओं में विभाजित रूप में बटा हुआ देखता है जिससे वह प्राणी और प्राणी में भेदभाव करता है।

 तामसिक ज्ञान वह ज्ञान है जिससे मनुष्य सत्य को नहीं समझ पाता जो संकीर्ण होता है और जो किसी एक काम को ही बिना उसके कारण का ध्यान किये उसे ही सब कुछ समझ लेता है 


सात्विक कर्म वह कर्म है  जो नियत है जो शास्त्रों में दिया गया है और जिसे बिना लिप्त हुए राग द्वेष को मिटाकर और फल की इच्छा रखे बिना किया जाता है

 राजसिक कर्म वह कर्म है जो फल की इच्छा रखते हुए बड़ी मेहनत से या जो अहंकार की भावना से किया जाता है और तामसिक कर्म वह कर्म है  जिसे अज्ञान के कारण हानि हिंसा या अपने सामर्थ्य का विचार के बिना और उसे कर्म के भावी बंधन का विचार किए बिना किया जाता है।


सात्विक कर्ता वह कर्ता है जिसमे अहंकार बिलकुल नहीं है।  जिसमे कोई आसक्ति और लगाव नहीं है। जिसमे उत्साह और धैर्य भरा हुआ है। जो सफलता और विफलता में एक जैसा रहता है। उनसे विचलित नहीं होता।

  राजसिक कर्ता वह कर्ता है जो आवेश से प्रेरित होकर अपने कर्मों का फल पाने के लिए हमेशा बेचैन रहता है जो लोभी है जिसके स्वभाव में हिंसा है जो अपवित्र है और जो आनंद और शोक के कारण विचलित हो जाता है। 

तामसिक कर्ता वह कर्ता है जो असंतुलित है जो भौतिकवादी है जो हठी है जो कपटी है जो दूसरों का अपमान करने वाला है जो द्वेष करता है जो दुखी है और जो काम को टालता रहता है

 अब तो गुणों के अनुसार बुद्धि और धैर्य के भी तीन भेद सुन जिन्हें मैं तुम्हें पूरी तरह अलग-अलग और विस्तार से बताता हूं 

सात्विक बुद्धि वह बुद्धि है जो कर्म और अकर्म करने योग्य और न करने योग्य कर्म के भेद को समझती है और इस बात को भी समझती है कि किससे डरना चाहिए और किस से नहीं डरना चाहिए क्या वस्तु मुक्त करती है और क्या वस्तु बंधन में डालती हैं 

राजसिक बुद्धि वह बुद्धि है जो धर्म अधर्म करने योग्य और न करने योग्य कर्म इन सब बातों को अधूरे ढंग से समझती है 

तामसिक बुद्धि वह बुद्धि है जो अज्ञान और अंधकार में डूबी रहती है ऐसी बुद्धि धर्म को तो अधर्म और अधर्म को धर्म समझती है और वह सदा विपरीत दिशा में ही केंद्रित रहती है और उल्टी दिशा में ही चलती है 

धृति मानसिक दृढ़ निश्चय अर्थात धारण करने की शक्ति को कहते हैं सात्विक धृति वह दृढ़ निश्चय है जो अविचल है जो दृढ़ होता है। और जिससे मनुष्य मन और जीवन देने वाले सभी इंद्रियों को केंद्रित और अपने वश में रखता है 

राजसिक धृति वह दृढ़ निश्चय है जिससे मनुष्य अपने धर्म अर्थ और कामना तथा उनके परिणाम स्वरुप फलों की इच्छा रखते हुए उनमें दृढ़ता से चिपका रहता है उनमें लिप्त और फंसा रहता है 

 तामसिक धृति  है जिससे कोई दुर्बुद्धि व्यक्ति निद्रा भय शोक विषाद और अभियान को नहीं छोड़ता और इन सब से चिपका रहता है

 पार्थ अब तीन प्रकार के सुखों के विषय में सुन सात्विक सुख वह सुख है जो आत्मा को स्पष्ट रूप से समझ लेने से होता है इसमें मनुष्य अपने लंबे अरसे के अभ्यास से आनंद अनुभव करता है जिससे उसके सभी दुखों का भी अंत हो जाता है सात्विक सुख शुरू में तो विष ऐसा लेकिन अंत में वह अमृत जैसा होता है

 राजसिक सुख वह सुख है जो इंद्रियों के विषयों के सहयोग से उन्हें भोगने से होता है ऐसा सुख शुरू में तो अमृत जैसा लेकिन अंत में वह विष जैसा होता है 

 तामसिक सुख वह सुख है जो आरंभ और अंत दोनों में ही आत्मा को भ्रम में डाले रखता है यह निद्रा आलस्य और अज्ञान से उत्पन्न होता है


साथियों  मैं अपनी चर्चा को यही विराम देता हू आप आपकी चर्चा कमेंट के माध्यम से अवश्य कीजिए। आगे भी इसी तरह की चर्चा में भाग लेने के लिए चैंनल को सब्सक्राइब कर दीजिए  साथियों जल्द मिलेंगे ऐसी ही ज्ञान वर्धक वीडियो की चर्चा में। आज की चर्चा में शामिल होने के लिए आप सभी का धन्यवाद, 



राधे राधे



जय श्री कृष्णा, आज की वीडियो में हम चर्चा करेंगे कि भगवद गीता के 18वे अध्याय के भाग 3 की।  आज कि वीडियो में हम  चर्चा करेंगे कि मनुष्य के स्वभाव के द्वारा नियत किए गए वर्ण ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य तथा शूद्र आदि के गुण व कर्म क्या क्या है। साथ ही साथ भगवान ने यह भी बताया है कि मनुष्यो में कौन उन्हें सबसे अधिक प्रिय होगा।  अंत में भक्ति से संकटों को पार करने के उपाय बताते हुए श्री भगवान अर्जुन को अपनी शरण में लेने का आश्वासन देकर भगवद गीता का उपदेश समाप्त करते हैं । तो आइए मेरे साथ आज की वीडियो पर चर्चा प्रारंभ करते है।


 
भगवान कृष्ण कहते है, हे पार्थ, तीनो लोको में  स्वर्ग के देवताओं समेत कोई भी ऐसा प्राणी नहीं है  जो प्रकृति से उत्पन्न गुणों से मुक्त हो। ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र के गुण व कर्म भी उनके अपने-अपने स्वभाव से उत्पन्न गुणों के अनुसार अलग-अलग प्रकार से विभाजित किए गए हैं 

 ब्राह्मण के स्वाभाविक गुण है शांतिप्रियता आत्म संयम तपस्या पवित्रता सहनशीलता सत्य निष्ठा ज्ञान विज्ञान तथा धर्म में श्रद्धा 

क्षत्रिय के स्वाभाविक गुण है वीरता तेज धीरता दक्षता युद्ध से और युद्ध में मुंह ना मुड़ना दानशीलता और नेतृत्व

 वैश्य का स्वाभाविक कर्म है कृषि पशुपालन और व्यापार 
शुद्र का स्वाभाविक कर्म है सेवा का काम करना 

अपने-अपने कर्म में लगा हुआ हर एक व्यक्ति सिद्धि को प्राप्त कर लेता है अपने स्वाभाविक  स्वभाव वाले धर्म का पालन करना ही उस परमात्मा की उपासना करना है ।

जिस मनुष्य की बुद्धि सदैव  निर्लिप्त रहती है जिस मनुष्य में कोई इच्छा बाकी नहीं बची है और जिसने अपनी आत्मा को भी वश में कर लिया है वह सिद्धि द्वारा उस सबसे ऊंचे पद तक पहुंच जाता है जो सब प्रकार के कर्मों से मुक्त है।

 अर्जुन ने भगवान से पूछा केशव , सिद्धि को पाने के बाद मनुष्य उस ब्रह्म को जो कि ज्ञान का सबसे ऊंचा स्थान है उसे कैसे प्राप्त कर सकता है। भगवान श्री कृष्ण बताते है विशुद्ध बुद्धि से ओत प्रोत होकर जो अपने आप को संयम में रखकर सभी इंद्रियों के विषयों तथा मोह अनुराग और द्वेष इन सब को त्याग कर एकांत में निवास करता हुआ अल्प आहार करता हुआ अपनी वाणी अपना शरीर और अपने मन को संयम में रखता हुआ वैराग्य में शरण लिए हुए अपना अहंकार अपना बल अपना घमंड अपनी इच्छा अपना क्रोध और अपनी संपत्ति इन सब को त्याग कर और यह मानकर कि मैं किसी भी वस्तु का स्वामी नहीं हूं। तब यह भावना रखते हुए और शांत चित्त वाला होकर वह ब्रह्म के साथ एक आकार होने के योग्य बन जाता है और जब वह ब्रह्म के साथ एक आकर होकर प्रशांत आत्मा बन जाता है तब उसे ना तो कोई शौक होता है और ना ही तब उसकी कोई इच्छा या कामना ही रहती है सभी प्राणियों को एक जैसा समझता हुआ वह मेरी परम भक्ति को प्राप्त कर लेता है और मेरी इस भक्ति द्वारा वह इस बात को भी जान लेता है कि मैं वास्तव में कौन हूं। तब सच्चे रूप में मुझे जान लेने के बाद वह मुझ में प्रवेश करता है मेरी शरण में आकर सब प्रकार के कर्मों को लगातार करते रहने पर भी वह मेरी कृपा से शाश्वत अमर और परम पद को पा लेता है।

हे पार्थ तू अपने आप को पूरी तरह मुझ में लीन करके अपने सभी कर्मों को अपने चेतन मन से मुझे ही अर्पण करके  अपने विचारों को मुझ में ही लगाए रख अपने चित्त को मुझ में स्थिर करके तुम मेरी कृपा से सब कठिनाइयों को पार कर जाएगा लेकिन यदि तू अपने झूठे अहंकार के कारण मेरी बात नहीं सुनेगा तो तू नष्ट हो जाएगा। अगर तू इस गलतफहमी में है कि तू यह युद्ध नहीं लड़ेगा तो तेरा यह सोचना और तेरा यह निश्चय व्यर्थ है क्योंकि तेरी ही प्रकृति तुझे इस युद्ध को लड़ने के लिए विवश कर देगी  तू भ्रम के कारण जिस कर्म को करना नहीं चाहता जिस युद्ध को लड़ना नहीं चाहता उसी कर्म को उसी युद्ध को इच्छा ना होते हुए भी तू अपनी ही प्रकृति से उत्पन्न अपने स्वभाव के कारण  विवश होकर युद्ध करेगा

 ईश्वर तो सभी प्राणियों के हृदय में निवास करता है उनके दिल में रहता है और वह उन सब को अपनी माया द्वारा अपने वश में करके खिलौने की तरह ऐसे घुमा रहा है मानो वह किसी यंत्र पर चढ़े हुए हो तू अपने संपूर्ण अस्तित्व के साथ अपनी संपूर्ण अंतरात्मा के साथ उसी ईश्वर के शरण में जा उसकी कृपा से तुझे परम शांति और परमधाम प्राप्त होगा

 इस प्रकार मैंने तुझे यह अच्छा ज्ञान बताया है जो सब रहस्य से भी सबसे बड़ा रहस्य है जो सब ज्ञानो से भी सबसे बड़ा ज्ञान है इस पर अच्छी तरह विचार करने के बाद तेरी जैसी इच्छा हो तू वैसा ही कर अब तू मेरे अति गोपनीय वचनों को भी सुन जो सबसे अच्छा और अति रहस्य पूर्ण है क्योंकि तू मेरा प्रिय है कि मैं तेरे हित की ही बात बताऊंगा अपने मन को मुझ में लगा मेरा भक्त बन मेरे लिए यज्ञ कर मुझे प्रणाम कर मेरी पूजाकर ऐसा करने से तू मुझ तक अवश्य पहुंच जाएगा इस बात का मैं तुझे सचमुच वचन देता हूं क्योंकि तु मुझे बहुत ही प्रिय है सभी कर्मों सभी कर्तव्यों और सभी धारणाओं को छोड़कर तू केवल मेरी शरण में आजा तू दुखी मत हो तुझे पापों से मुक्त कर दूंगा

 याद रहे पार्थ तू इस गूढ़ ज्ञान को किसी भी ऐसे व्यक्ति को मत बताना जिसने जीवन में तप ना किया हो जिसमें इसे सुनने की श्रद्धा ना हो जिसमें मेरे प्रति निष्ठा और आस्था ना हो या जो मेरे से द्वेष करता हो।  

इसके बाद भगवान ने मुझे आशीर्वाद देते हुए मेरे लिए कुछ शब्द कहे है यही शब्द मेरी भगवद गीता पर वीडियो बनाने का कारण बने ।  भगवान ने कहा है हे पार्थ जो इस परम रहस्य को मेरे भक्तों को सीखाता है वह मेरे प्रति विशुद्ध भक्ति दिखाता है और वह अवश्य ही बिना संदेह है मुझ तक पहुंच जाएगा। मनुष्यो में उससे अधिक मेरा प्रिय काम करने वाला कोई नहीं है और इस संसार में उससे बढ़कर मुझे और कोई प्रिय होगा भी नहीं और जो व्यक्ति हमारे इससे पवित्र संवाद का अध्ययन करेगा जो इसे  पढ़ेगा मैं ऐसा समझूंगा कि वह ज्ञान यज्ञ द्वारा मेरी पूजा कर रहा है।

 इसके बाद भगवान ने मेरे विवर्स यानी आपके  लिए भी कुछ शब्द कहे है, भगवान ने कहा है कि जो मनुष्य पूरी श्रद्धा पूरी निष्ठा और आस्था से बिना इर्ष्या किए हमारे इस पवित्र संवाद को सुनेगा वह भी मुक्त होकर पुण्य आत्माओं के आनंद मय लोक में पहुंच जाएगा।

 इसके बाद भगवान ने अर्जुन से पूछा पार्थ क्या तूने एकाग्रचित होकर, पूरे ध्यान से इस सब को सुना है क्या तेरा ज्ञान और तेरा मोह दूर हो गए हैं 

अर्जुन ने उत्तर दिया हे भगवान मैं एकाग्रचित होकर और पूरे ध्यान से यह सब को सुना है आपकी कृपा से और आपके समझाने से मेरा सारा ज्ञान मेरा सारा मोह और मेरे सारे भरम नष्ट हो गए हैं मेरी स्मृति फिर लौट आई है अब मेरे सारे संदेह समाप्त हो गए हैं और मैं स्थिर हो गया हूं मैं आपके आदेश अनुसार ही काम करूंगा और यह है धर्म युद्ध अवश्य लडूंगा। फिर अर्जुन अपना धनुष उठाते है।


 साथियों इसी के साथ भगवद गीता के पूरे अध्याय समाप्त होते है। मैने अपने सामर्थ्य और विवेक के अनुसार बहुत ही संक्षेप में भगवद गीता का ज्ञान आप तक पहुंचाने का प्रयास किया है।  लेकिन अभी भगवद गीता समाप्त नहीं हुई है। आगे आने वाली विडियोज में हम चर्चा करेंगे कि भगवद गीता हमारे साथ होने वाली दैनिक समस्यायों से किस प्रकार मुक्ति दिला सकती है। मैं विश्वास दिलाता है कि भगवद गीता पर ऐसी वीडियो पूरे यूट्यूब पर आपको कही और नही मिलेगी। इसीलिए अपनी समस्याओं से मुक्ति पाने के लिए हमारे चैनल को subscribe करके हमारे साथ जुड़ जाइए। आज की चर्चा में सामिल होने के लिए आप सभी का धन्यवाद, राधे राधे